कविता ‘अब कहां मिलता है साहब स्वादिष्ट पकवान पहले वाला’
डॉ. अशोक कुमार वर्मा
हाँ, देखा है मैंने……………..
चिकनी मिट्टी से बना चूल्हा।
हर घर आँगन में धरा पर धरा।
धीरे धीरे पकता था साग हरा हरा।
धरा पर बैठ जाती थी घर की बाला।
बनाती थी भोजन शुद्धिकरण वाला।
सेंकती थी रोटियां, चूल्हा था मिट्टी वाला।
सब बैठ जाते थे धरा पर खाने निवाला।
होता था भोजन मलाई मक्खन वाला।
हाँ आज देख रहा हूँ सब कुछ बदला बदला……………
अब कहां मिलता है साहब स्वादिष्ट पकवान पहले वाला।
आज भोजन खड़े होकर बनाते हैं नर नारी।
ड्यूटी पर जाना है कुकर में बन रही है तरकारी।
पक नहीं रही भाप में गल रही है सब्जी सारी।
बड़बड़ाती हुई खड़े-खड़े बेल रही है रोटियां घर की नारी।
तवे से उतार शीघ्र सीधे गैस पर फूला रही हैं रोटियां महतारी।
घर की बाहर की न जाने कितनी निभा रही हैं जिम्मेदारी। पति देव को भी है जाना इसीलिए खड़े-खड़े ही खा रहे हैं खाना।