दिल्ली को अवैध निर्माण की ‘राजधानी’ बनाने के गुनहगार कौन?
नई दिल्ली। किसी भी देश की राजधानी उस देश के लिए गौरव व शान का प्रतीक होती है और उस देश की राजधानी में रहने वाले लोग भी इस बात पर गर्व करते हैं कि वे अपने देश की राजधानी के निवासी हैं। लेकिन हमारे देश की राजधानी दिल्ली का मामला बिलकुल अलग है। अगर लुटियन्स दिल्ली को छोड़ दिया जाये तो शेष दिल्ली देश की राजधानी कम और अवैध निर्माणों की राजधानी ज्यादा लगती है। बात अनधिकृत कॉलोनियों की की जाये, स्लम कॉलोनियों की की जाये या फिर डीडीए द्वारा विकसित कॉलोनियों की, हर जगह अतिक्रमण व अवैध निर्माणों का बोल-बाला है। दिल्ली में जिस गति से बड़े पैमाने पर अवैध निर्माण चल रहे हैं अगर इन्हें समय रहते नहीं रोका गया तो आने वाले दस वर्षों में यही अवैध निर्माण दिल्ली व दिल्ली वालों के लिए ऐसा नासूर बन जाएंगे, जिससे निपटना सरकार के बस में भी नहीं होगा। अब सवाल यह उठता है कि जब सरकार द्वारा अतिक्रमण व अवैध निर्माण रोकने के लिए विभिन्न एजेंसियों का गठन किया गया है, बावजूद इसके इन पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है? दिल्ली के एक बड़े हिस्से के रख-रखाव का जिम्मा दिल्ली नगर निगम के पास है। फिलहाल दिल्ली में उत्तरी दिल्ली नगर निगम, दक्षिणी दिल्ली नगर निगम व पूर्वी दिल्ली नगर निगम इस कार्य को देख रहे हैं। हर नगर निगम में जोन स्तर के कार्यालय भी बनाये हुए हैं साथ ही हर निगम वार्ड में भवन विभाग की ओर से एक जूनियर इंजीनियर की तैनाती भी की गई है, जिसका काम क्षेत्र में किसी भी प्रकार के होने वाले अतिक्रमण अथवा अवैध निर्माण को रोकना है। साथ ही सरकार द्वारा अतिक्रमण अथवा अवैध निर्माणों के मामले में मिलने वाली शिकायतों पर कार्यवाही करने के लिए स्पेशल टास्क फार्स (एसटीएफ) का गठन भी किया गया है। लेकिन जिस स्तर पर पूरी दिल्ली में अवैध निर्माण का धंधा फल-फूल रहा है उसे देख कर स्वयं ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उक्त एजेंसियां अपने काम के प्रति कितनी गंभीर हैं।
सूत्रों की मानें तो अवैध निर्माणों का यह धंधा बिल्डर माफियाओं व निगम अधिकारियों के आपसी तालमेल के कारण ही फल-फूल रहा है। जिसके लिए बाकायदा कॉलानी के हिसाब से रिश्वत तय की गई है। उदाहरण के तौर पर रोहिणी, पीतमपुरा, शालीमार बाग, पश्चिम विहार, अशोक विहार जैसे इलाकों में अवैध निर्माण करने के ऐवज में फ्लोर (मंजिल) के हिसाब से रिश्वत तय की जाती है, जबकि करोलबाग, शक्ति नगर, चांदनी चौक जैसे इलाकों में अवैध निर्माण के दौरान प्रत्येक दिन के हिसाब से रिश्वत का भुगतान करना होता है। इसी तरह सैनिक फार्म हाऊस, अनंतराम डेरी जैसे पॉश इलाकों में अवैध निर्माण के दौरान घंटों के हिसाब से रिश्वत की राशि तय होती है। प्रत्येक वार्ड में भवन विभाग की ओर से तैनात बेलदार इस मामले में बिल्डर माफिया व निगम अधिकारियों के बीच ‘बिचोलियेÓ की भूमिका निभाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह बेलदार अपने-अपने वार्डों में करीब डेढ़ दशकों से जमे हुए हैं, जबकि भवन विभाग का कोई भी जूनियर इंजीनियर किसी भी निगम वार्ड में छ: या आठ महीने से ज्यादा नहीं रहता है। दिल्ली में चल रहे अवैध निर्माण के इस खेल में स्थानीय जनप्रतिनिधियों विशेष कर निगम पार्षदों की भूमिका भी कई तरह के सवाल खड़ा करती है। इन निगम पार्षदों को जनता ने क्षेत्र के विकास के लिए चुना है, लेकिन जिस तरह से बिल्डर माफिया खुलेआम अवैध निर्माणों को अंजाम देते हुए विकास की योजनाओं को पलीता लगा रहे हैं और निगम पार्षद अपनी बेबसी का रोना रो कर इसकी जिम्मेदारी निगम पर डाल कर पल्ला झाड़ रहे हैं, उसे देख कर पार्षदों की भूमिका भी संदेह के घेरे में आ जाती है। सूत्रों की मानें तो रोहिणी जैसी जनता कॉलोनी में ही अवैध निर्माणों के ऐवज में हर माह करोड़ों रुपये की राशि रिश्वत की भेंट चढ़ जाती है। ऐसे में शेष दिल्ली की पॉश कॉलोनियों में होने वाले अवैध निर्माणों के ऐवज में हर माह अरबों रुपये की राशि रिश्वत की भेंट चढऩा मामूली बात है। अवैध निर्माणों से निकली भ्रष्टाचार की इस गंगा में स्थानीय पुलिस, तथाकथित एनजीओ व तथाकथित पत्रकारों को भी डुबकी लगाने का मौका मिल जाता है। गौरतलब है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं भाजपा सांसद विजय गोयल भी समय-समय पर सार्वजनिक मंचों से निगम में बड़े पैमाने पर व्याप्त भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते रहे हैं।
इस मामले में सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि बिल्डर माफिया तो अपने अवैध निर्माणों को आम जनता को बेच कर मोटा मुनाफा कमा लेता है लेकिन भविष्य में यही अवैध निर्माण खरीदार के गले की हड्डी बन जाता है। इस मामले में स्थानीय सब-रजिस्ट्रार व निजी बैंकों की भी भूमिका भी बिल्डर को बचाने व खरीदार को फसाने में अहम रोल अदा करती है।
अब सवाल यह उठता है कि दिल्ली को अवैध निर्माण की राजधानी बनाने के असली गुनहगार कौन हैं? इस बात का खुलासा होना जरूरी है।