धर्म-कर्म – Apni Dilli https://apnidilli.com Hindi News Paper Sat, 03 Feb 2024 13:49:00 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.4.4 https://apnidilli.com/wp-content/uploads/2023/09/cropped-logo-1-32x32.jpg धर्म-कर्म – Apni Dilli https://apnidilli.com 32 32 कष्टप्रद हो सकता हैं इस नक्षत्र में जन्मा बच्चा, करें सरल ज्योतिष उपाय  https://apnidilli.com/22983/ Sat, 03 Feb 2024 13:44:40 +0000 http://apnidilli.com/?p=22983 रजत सिंगल (ज्योतिषी )

बच्चे के जन्म के बाद, कुंडली में सबसे पहले गंडमूल देखा जाता हैं और यह विचार उस समय उत्पन्न होता है जब बच्चे का जन्म मूल नक्षत्रों में होता है। ज्योतिष शास्त्र में कुल 27 नक्षत्र होते हैं, जिनमें से छह नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र माने जाते हैं: ज्येष्ठा, आश्लेषा, रेवती, मूल, मघा, और अश्विनी। ज्येष्ठा, आश्लेषा, और रेवती का स्वामी बुध होता है, जबकि मूल, मघा, और अश्विनी का स्वामी केतु होता है।

जन्म नक्षत्र में गंडमूल दोष के कारण बच्चे और परिवार को कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है। इसके बावजूद, यह विश्वास अंधविश्वास के रूप में भी जाना जाता है, और इसका वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। यदि इसे सही ढंग से समझा जाए तो बच्चे के भविष्य पर इसका कोई सार्थक प्रभाव नहीं होता है।  

ज्योतिष शास्त्र में 27 नक्षत्र होते है, और इन 27 नक्षत्रों को पदों में विभाजित किया जाता है, मतलब हर एक नक्षत्र के 4 पद होते है। अब इसे थोडा सा और विस्तृत तरीके से समझते हैं। आप सभी जानते हैं ज्योतिष गणना में 12 राशियाँ होती है और राशिओं का नक्षत्रों से बहुत गहरा सम्भन्ध हैं। हर एक राशि, नक्षत्र के 9 पदों से बनती हैं, या हम ये भी कह सकते हैं की एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं, अर्थात 4 पदों से बनता है एक नक्षत्र और 9 पदों से बनती है एक राशि। 

जिस भी नक्षत्र में एक नई राशि समाप्त होती है या आरम्भ होती हैं वह नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र कहलाते है। ज्योतिष शास्त्र में कुल 27 नक्षत्र है जिनमे से 6 नक्षत्र ज्येष्ठा, आश्लेषा, रेवती, मूल, मघा और अश्विनी नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र होते हैं। 

अब बात आती हैं गंडमूल नक्षत्र की तो जिस भी नक्षत्र में एक नई राशि समाप्त होती है या आरम्भ होती हैं वह नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र कहलाते है, जैसे की कर्क राशि के 9 पद और आश्लेशा नक्षत्र के 4 पद यहाँ खत्म हो रहे हैं और इसी तरह वृचिक राशि का समापन ज्येष्ठा नक्षत्र के साथ हो रहा हैं और इसी तरह मीन राशी और रेवती नक्षत्र दोनों ही यहाँ एक साथ समाप्त हो रहे हैं पर बाकि जगह ऐसा नहीं हैं जैसे मिथुन राशी के समापन पर पुनर्वसु नक्षत्र नही खत्म हुआ। ऐसे ही जब एक नई राशी और नक्षत्र एक साथ आरम्भ होते है तो वह नक्षत्र भी गंडमूल नक्षत्र कहलाता हैं जैसे की सिंह राशि और माघ नक्षत्र, धनु राशी और मूल नक्षत्र और मेष राशी और अश्वनी नक्षत्र, तो यह 6 नक्षत्र गंडमूल नक्षत्र बन जाते हैं। 

*गंडमूल नक्षत्र कब अनिष्टकारी होता है ?*

यह भी महत्वपूर्ण होता है की गंडमूल नक्षत्र में भी बच्चे का जन्म कौन से चरण में हुआ है, जैसे रेवती नक्षत्र का प्रथम चरण, अश्लेषा का चतुर्थ चरण, मघा एवं मूल का प्रथम चरण ज्येष्ठा का चतुर्थ चरण अधिक अनिष्ठ कारक है। लेकिन इन मूल नक्षत्र के साथ-साथ अगर बच्चे का जन्म मंगलवार या शनिवार को हो तो अधिक खराब स्तिथि रहती है, फिर भी घबराये नहीं क्योकि कुंडली में अनेक परिहार योग बनते है जिनमे अधिकतर कुंडली में मूल नक्षत्र दोष का परिहार हो जाता है, आप किसी भी कुशल ज्योतिषी की मदद से इसके निवारण और परिहार का पता लगा सकते है जैसे की

1. अगर कन्या का जन्म दिन के समय हो और लड़के का जन्म रात्रि में हो तो भी मूल नक्षत्र का प्रभाव कम हो जाता है। 

2. कुंडली में लग्न राशि वृषभ, सिंह, वृश्चिक या कुम्भ है तो मूल नक्षत्र दोष परिहार होता है। 

*गंडमूल पूजन कब करायें ?*

गंडमूल नक्षत्र में उत्पन्न बच्चे की विद्वान एवम योग्य ब्राह्मण द्वारा शांति पूजन जरूर करा लेना चाहिए, यह शांति पूजन जन्म के 27 दिन बाद उसी नक्षत्र में विधि विधान से करना चाहिए जिसमे बच्चे का जन्म हुआ था। 

फिर भी अगर आप मूल शांति पूजन करना भूल गये हैं तो आने वाले जन्मदिन पर किसी ज्योतिषी से सलाह करके दान-पूजन करवा ले इससे भी मूल शांत होते हैं। 

ज्योतिषी रजत सिंगल के सरल उपायो द्वारा करे गंड मूल दोष का निवारण

गंड मूल दोष के बुरे प्रभावों का उपाए जन्म के समय नहीं किया गया है तो नीचे दिए गये उपाए करके आप इसके बुरे प्रभाव को कम जरूर कर सकते हैं। 

1. यदि चंद्रमा बुध नक्षत्र में हो तो बुध और चंद्रमा के मंत्र का जाप करें। चंद्रमा का मंत्र “ॐ श्री सोमाय नमः” और बुध का मंत्र “ॐ श्री बुधाय नमः” इन दोनों मंत्रो का 108 बार जाप करना चाहिए ।

2. यदि चन्द्रमा केतु नक्षत्र में हो तो केतु और चन्द्रमा के मंत्र का जाप करें।

3. सोमवार या बुधवार के दिन यदि चंद्रमा बुध के नक्षत्र में हो तो हरे रंग के कपड़े पहनें।

4. यदि चंद्रमा केतु नक्षत्र में हो तो सोमवार और बुधवार को भूरे रंग के वस्त्र पहनें।

5. सोमवार के दिन गौशाला में गायों को पालक और घास खिलाएं।

6. यदि चंद्रमा केतु नक्षत्र में हो तो सुख की खोज करने से बचें और बुधवार और सोमवार की आध्यात्मिक गतिविधियों पर ध्यान दें।

7. यदि चंद्रमा गंड मूल में हो तो प्रतिदिन गणेश जी के मंत्र “ओम गं गणपतये नमः” का 108 बार जाप करें।

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भोले के सुगम और दुर्गम दर्शन  https://apnidilli.com/19190/ Fri, 15 Jul 2022 06:41:44 +0000 http://apnidilli.com/?p=19190 राकेश अचल।  भोले के सुगम और दुर्गम दर्शन सावन का महीना भोले की भक्ति का महीना   है लेकिन काशी में भोले के दर्शन अब सुगम नहीं रहे .दुर्गम हो गए हैं. काशी अब पहले वाली काशी नहीं है .अब ये काशी बाबा विश्वनाथ की नहीं बल्कि किसी और  की काशी है. काशी में बाबा विश्वनाथ से पूछे बिना मंदिर के सीईओ सुनील कुमार वर्मा ने बाबा के दर्शनों के रेट बढ़ा दिए हैं .अब्बल तो ये रेट निर्धारण का अधिकार सुनील को किसने दिया है और फिर ये बढ़ाये क्यों गए हैं ?

काशी में बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने के लिए आम दिनों में 500  रूपये,सोमवार को 750 ,मंगला आरती में 1000 ,सोमवार की मंगला आरती 2000  सोमवार को विशेष श्रृंगार के दर्शन के लिए 20  हजार रूपये देना होंगे .सुगम दर्शन का आठ है की आप बिना कतार में लगे सीधे गर्भगृह में पहुँच सकते हैं .दुनिया के तमाम देशों में भगवान के दर्शनों पर शुल्क नहीं लिया जाता किन्तु भारत में हिंदुत्व के ठेकेदार भगवान के नाम पर कमाते हैं .उन्हें अधिकार है कि वे भगवान के जरिये कैसे कमाएं और कितना कमाएं .हमारे अपने महाकाल के दर्शन भी इसी तरह होते हैं,इसलिए हम रेल में बैठे-बैठे ही उनके हाथ जोड़ लेते हैं .

भारत में ही आप किसी गुरुद्वारा में जाइये कोई दर्शन शुल्क नहीं है.किसी गिरजाघर में जाइये,कोई दर्शन शुल्क नहीं है. किसी जैन मंदिर में जाइये,कोई दर्शन शुल्क नहीं है ,किस मस्जिद में नमाज पढ़ने जाइये कोई शुल्क नहीं ,लेकिन किसी मंदिर में जाइये तो वहां दर्शन शुल्क है .हिन्दुओं के भगवान आम आदमी के भगवान नहीं हैं शायद. इसीलिए वे अपने दर्शनों का शुल्क वसूल करते हैं .भगवान ने अपने भक्तों की श्रेणियां बना रखीं हैं .भगवान ने बनाई है तो उनके सेवकों ने बना ली हैं और भगवान चुपचाप देखते रहते हैं .

हिन्दू मंदिरों के बाहर पंडा राज चलता है. मंदिर के बाहर से लेकर भीतर वे अपने जजमानों को मूढ़ते हैं .दक्षिण के मंदिर में जाइये या उत्तर के , पूरब के ,में जाइये या पश्चिम के मंदिर में ,ये एजेंट आपको हर जगह मौजूद मिलेंगे .और तो और गया में पिंडदान करने जाइये तो वहां भी ये मौजूद हैं .भक्तों की मदद  के लिए इनकी सेवाएं होती हैं ,लेकिन सेवा शुल्क के साथ .जितना बड़ा मंदिर ,उतना बड़ा शुल्क .हर मंदिर में बैठा देवता आम आदमी से पहले ख़ास आदमी को दर्शन देने के लिए विवश है क्योंकि उसके प्रबंधकों ने ख़ास आदमी से धन जो वसूल कर लिया होता है .भगवान के प्रबंधक फिल्म अभिनेताओं के प्रबंधकों जैसे आते हैं. वे ही तय करते हैं की भगवान कब और किसे और कितनी देर दर्शन देंगे .

संयोग से मै अपने  देश के और विदेशों के तमाम प्रमुख मंदिरों में भक्त की हैसियत से ही नहीं एक पर्यटक की हैसियत से गया हूँ ,इसलिए जो लिख रहा हूँ अनुभव के आधार पर लिख रहा हूँ .दुनिया में न मस्जिद में वीआपी होता है और न गुरुद्वारे में गिरजाघर में भी कोई वीआईपी नहीं होता है.मस्जिद में तो होता ही नहीं है .हाँ जैन मंदिर में थैलियां देखकर आम और ख़ास आदमी हो जाता है .यहां का विधि -विधान अलग है ,लेकिन उसे लूटमार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता .केवल हिंदुओंके मंदिर ऐसे हैं जहां आम आदमी की मुसीबत है .उसे देव् दर्शन के लिए घंटों तक कतारों में खड़ा होना पड़ता है .

आप देखेंगे की हिन्दू मंदिरों में चढ़ावा दूसरे धर्म के पूजाघरों के मुकाबले सबसे ज्यादा आता है ,इतना कि उसे गिनने के लिए मशीनों की मदद लेना पड़ती है,फिर भी भगवान के भोजन और श्रृंगार  के लिए अतिरिक्त आमदनी की जरूरत पड़ती है और ये जरूरत ही दर्शन शुल्क का असल कारण है. देवता तो देवता, हमारे यहां फकीरों के मंदिरों में भी शुल्क की व्यवस्था है क्योंकि प्रबंधकों ने पाषाण शिला पर बैठने वाले फकीरों की प्रतिमाओं   को बैठने के लिए स्वर्णजटित सिंघासन जो बनवा दिए हैं.

बेचारा हिन्दू ‘ हरि को भजे सो हरी को होई ‘ के फार्मूले पर यकीन करता है लेकिन जब मंदिर पहुंचता है तो वहां के प्रबंध देखकर ठगा सा रह जाता है .एक सनातनी हिन्दू के नाते देव् दर्शन मुझे भी प्रिय है. लेकिन मै देव् दर्शन के लिए जब रुपया खर्च नहीं कर पाता तो सुगम दर्शनों के बजाय दुर्गम दर्शनों को चुनता हूँ और कभी-कभी कभी तो मंदिर के शिखर पर फहराते ध्वज को प्रणाम करके   भी मन को समझा लेता हूँ. मन मानता नहीं है लेकिन उसे मनाना पड़ता है .

हमारे   गांव के मंदिरों में देव् दर्शन का कोई शुल्क नहीं लगता.वहां विग्रहों की पूजा हम बेखटके कर सकते हैं. कोई गरीब-अमीर और वीआईपी नहीं होता ,लेकिन बड़े शहरों में ये सब नहीं है .बड़े शहरोंमें गरीब,अमीर और वीआईपी सब होते हैं और सबके लिए इंतजाम करना पड़ता है भगवान को. भगवान के नाम पर इन पूजाघरों में लंगर चलते हैं और इसके लिए धन चाहिए .भगवान तो खेती करते नहीं,उद्योग चलते नहीं सो ऐसे लोगों से धन शुल्क के रूप में ले लेते हैं .

हिन्दू मंदिरोंमें शुल्क  की प्रथा भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका तक में है. अमेरिका में भगवान शिव का जलाभिषेक करने   के लिए कम से कम 11  डालर लगते हैं .लोग देते भी हैं लेकिन दर्शन के कोई पैसे नहीं लगते. दर्शन के पैसे तो भारत में ही लगते हैं. चीन में भी बौद्ध मंदिरों में दर्शन और पूजा निशुल्क है .एशिया के छोटे-बड़े देशों में मुझे कहीं देव् दर्शन के लिए पैसा नहीं देना पड़ता ,लेकिन अपने ही देश में मेरे लिए ये सुविधाएं नहीं हैं .और शायद हो भी नहीं सकतीं .आखिर भव्यता,दिव्यता के लिए पैसा तो चाहिए .

हमारे अध्येता  मित्र चुन्नीलाल बता रहे थे कि योरोप में धर्मकर्म के  लिए सरकार फंड जुटाती है ,लेकिन हमारे यहां सरकार मंदिर बनाने के लिए रथ यात्राएं  करती है. चन्दा जुटाती है .अदालत जाती है ,लेकिन केवल हिन्दू धर्म के लिए दूसरे धर्मों से उसे कोई लेना देना नहीं है .उसे क्या किसी को कोई लेना देना नहीं है. वैसे सरकारों को किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए .लेकिन हमारे यहां है .और ये अच्छी बात है .हम कहने भर को धर्म निरपेक्ष हैं ,जबकि हकीकत में हम धर्म सापेक्ष हैं .हमारी धर्म सापेक्षता हर चीज पर भारी पड़ती है .

बहरहाल मै पूजाघरों में शुल्क की बात कर रहा था. मेरा मुद्दा न महगाई है ,न भ्र्ष्टाचार ,न राष्ट्रपति चुनाव है और न पूर्व उप राष्ट्रपति पर लगे जासूसी के आरोप .मुझे किसी दूसरे मुद्दे से कुछ लेना -देना ही नहीं है, ‘ हुईए वही जो राम रची राखा ‘ .डालर के मुकाबले रुपया लुढ़के ,हमें क्या ? जेहि विधि राखे राम,तेहि विधि रहिये .राम जी चाहते हैं तभी तो सब कुछ हो रहा है ,हम खामखां किसी और को क्यों कोसें ? लेकिन भगवान   से हमारी एक ही विनती है कि वे हम आदमियों की तरह निरीह बने न रहें .अपने दर्शनों को निशुल्क करने के लिए कोई जुगत बैठाएं .अपने प्रबंधकों को स्वप्न में आकर निर्देश दें .अन्यथा हमारी कौन सुनने वाला है ?

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श्राद्ध 20 सितंबर से 6 अक्तूबर तक परंतु 26 सितंबर को पितृपक्ष की तिथि नहीं,क्यों करें? https://apnidilli.com/16524/ Thu, 16 Sep 2021 07:44:40 +0000 http://apnidilli.com/?p=16524 श्राद्ध सारिणी

20 सितंबरसोमवार: – पूर्णिमा श्राद्ध 

21 सितंबरमंगलवार: –प्रतिपदा श्राद्ध 

22 सितंबरबुधवार: – द्वितीया श्राद्ध 

23 सितंबरबृहस्पतिवार: – तृतीया श्राद्ध 

24 सितंबरशुक्रवार: – चतुर्थी श्राद्ध 

25 सितंबरशनिवार: – पंचमी श्राद्ध 

27 सितंबरसोमवार: – षष्ठी श्राद्ध 

28 सितंबरमंगलवार: – सप्तमी श्राद्ध 

29 सितंबरबुधवार: – अष्टमी श्राद्ध 

30 सितंबरबृहस्पतिवार: – नवमी श्राद्ध 

01 अक्तूबरशुक्रवार: – दशमी श्राद्ध 

02 अक्तूबर1, शनिवार: – एकादशी श्राद्ध 

03 अक्तूबररविवार: – द्वादशीसन्यासियों का श्राद्धमघा श्राद्ध 

04 अक्तूबरसोमवार: – त्रयोदशी श्राद्ध 

05 अक्तूबरमंगलवार: – चतुर्दशी श्राद्ध

06 अक्तूबरबुधवार: – अमावस्या श्राद्ध

दिन के अपरान्ह 11:36 मिनिट से 12:24 मिनिट तक का समय श्राद्ध कर्म के विशेष शुभ होता है। इस समय को कुतप काल कहते हैं।

क्यों करें श्राद्ध \
अक्सर आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती हैं । प्रशन किया जाता है कि क्या श्राद्धों की अवधि में ब्राहमणों को खिलाया गया भोजन पित्तरों को मिल जाता है\  क्या यह हवाला सिस्टम है कि   पृथ्वी लोक में दिया और परलोक में मिल गया ! फिर जीते जी हम माता पिता को नहीं पूछते —–मरणेापरांत पूजते हैं! ऐसे कई प्रशन हैं जिनके उत्तर तर्क से देने कठिन होते हैं फिर भी उनका औचित्य अवश्य होता है।

आप अपने सुपुत्र से कभी पूछें कि उसके दादा – दादी जी या नाना -नानी जी  का क्या नाम है। एकल परिवार में ,आज के युग में 90 प्रतिशत बच्चे या तो सिर खुजलाने लग जाते हैं या ऐं—-ऐं —– करने लग जाते हैं। परदादा का नाम तो रहने ही दें ।यदि आप चाहते हैं कि आपका नाम आपका पोता भी जाने तो आप श्राद्ध के महत्व को समझें। सदियों से चली आ रही भारत की इस व्यावहारिक एवं सुंदर परंपरा का निर्वाह अवश्य करें। हम पश्चिमी सभ्यता की नकल कर के मदर डे,फादर डे, सिस्टर डे,वूमन डे,वेलेंटाइन डे आदि पर  पर ग्रीटिंग कार्ड या गीफट देके डे मना ल्ेाते हैं ।  उसके पीछे निहित भावना या उदे्श्य को अनदेखा कर देते हैं। परंतु श्राद्धकर्म का एक समुचित उद्ेश्य है जिसे धार्मिक कृत्य से जोड़ दिया गया है।

श्राद्ध ] आने वाली संतति को अपने पूर्वजों से परिचित करवाते हैं। जिन दिवंगत आत्माओं के कारण पारिवारिक वृक्ष खड़ा है] उनकी कुर्बानियों व योगदान को स्मरण करने के ये 15 दिन होते है। इस अवधि में अपने बच्चों को परिवार के दिवंगत पूर्वजों के आदर्श व कार्यकलापों के बारे बताएं ताकि वे कुटुंब की स्वस्थ परंपराओं का निर्वाह करें।

ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं में ही मृतकों को याद करने की प्रथा है]  इसाई समाज में निधन के 40 दिनों बाद एक रस्म की जाती है जिसमें सामूहिक भोज का आयोजन होता है।इस्लाम में भी 40 दिनों बाद कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ने का रिवाज है। बौद्ध धर्म में भी ऐसे कई प्रावधान है।तिब्बत में इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है। पश्चिमी समाज में मोमबत्ती प्रज्जवलित करने की प्रथा है।

दिवंगत प्रियजनों की आत्माओं की तृप्ति]मुक्ति एवं श्रद्धा पूर्वक की गई क्रिया का नाम ही श्राद्ध है। आश्विन मास का कृष्ण पक्ष श्राद्ध के लिए तय है। ज्योतिषीय दृष्टि से इस अवधि में सूर्य कन्या राशि पर गोचर करता है। इसलिए इसे ‘कनागत भी कहते हैं।जिनकी मृत्यु तिथि मालूम नहीं है] उनका श्राद्ध अमावस को किया जाता है। इसे सर्वपितृ अमावस या सर्वपितृ श्राद्ध भी कहते हैं। यह एक श्रद्धा पर्व है——भावना प्रघान पक्ष है। इस बहाने अपने पूर्वजों को याद करने का एक रास्ता। जिनके पास समय अथवा धन का अभाव है, वे भी इन दिनों आकाश की ओर मुख करके ]दोनों हाथों द्वारा आवाहन करके पितृगणों को नमस्कार कर सकते हैं। श्राद्ध ऐसे दिवस हैं जिनका उद्ेश्य परिवार का संगठन बनाए रखना है। विवाह के अवसरों पर भी पितृ पूजा की जाती है।

दिवंगत परिजनों के विषय में वास्तुशास्त्र का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। घर में पूर्वजों के चित्र सदा नैर्ऋत्य दिशा में लगाएं। ऐसे  ं चित्र देवताओं के चित्रों के साथ न सजाएं। पूर्वज आदरणीय  एवं श्रद्धा के प्रतीक हैं। पर वे ईष्ट देव का स्थान नहीं ले सकते। जीवित होते हुए अपनी न तो  प्रतिमा बनवाएं और न ही अपने चित्रों की पूजा करवाएं। ऐसा अक्सर फिल्म उद्योेग या राजनीति में होता है जिसे किसी भी प्रकार शास्त्रसम्मत नहीं माना जा सकता।

हमारे समाज में हर सामाजिक व वैज्ञानिक अनुष्ठान को धर्म से जोड़ दिया गया था ताकि परंपराएं चलती रहें।श्राद्धकर्म उसी श्रृंखला का एक भाग है जिसके सामाजिक या पारिवारिक  औचित्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

धार्मिक मान्यताएं

हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद श्राद्ध करना बेहद जरूरी माना जाता है। मान्यतानुसार अगर किसी मनुष्य का विधिपूर्वक श्राद्ध और तर्पण ना किया जाए तो उसे इस लोक से मुक्ति नहीं मिलती ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार देवताओं को प्रसन्न करने से पहले मनुष्य को अपने पितरों यानि पूर्वजों को प्रसन्न करना चाहिए। हिन्दू ज्योतिष के अनुसार भी पितृ दोष को सबसे जटिल कुंडली दोषों में से एक माना जाता है। पितरों की शांति के लिए हर वर्ष भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक के काल को पितृ पक्ष श्राद्ध होते हैं। मान्यता है कि इस दौरान कुछ समय के लिए यमराज पितरों को आजाद कर देते हैं ताकि वह अपने परिजनों से श्राद्ध ग्रहण कर सकें।

ब्रह्म पुराण के अनुसार जो भी वस्तु उचित काल या स्थान पर पितरों के नाम उचित विधि द्वारा ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक दिया जाए वह श्राद्ध कहलाता है। श्राद्ध के माध्यम से पितरों को तृप्ति के लिए भोजन पहुंचाया जाता है। पिण्ड रूप में पितरों को दिया गया भोजन श्राद्ध का अहम हिस्सा होता है।

मान्यता है कि अगर पितर रुष्ट हो जाए तो मनुष्य को जीवन में कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पितरों की अशांति के कारण धन हानि और संतान पक्ष से समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है। संतान-हीनता के मामलों में ज्योतिषी पितृ दोष को अवश्य देखते हैं। ऐसे लोगों को पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध अवश्य करना चाहिए।

श्राद्ध में तिल, चावल जौ आदि को अधिक महत्त्व दिया जाता है। साथ ही पुराणों में इस बात का भी जिक्र है कि श्राद्ध का अधिकार केवल योग्य ब्राह्मणों को है। श्राद्ध में तिल और कुशा का सर्वाधिक महत्त्व होता है। श्राद्ध में पितरों को अर्पित किए जाने वाले भोज्य पदार्थ को पिंडी रूप में अर्पित करना चाहिए। श्राद्ध का अधिकार पुत्र, भाई.पौत्र, प्रपौत्र समेत महिलाओं को भी होता है।

श्राद्ध में कौओं का महत्त्व

कौए को पितरों का रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर कौए का रूप धारण कर नियत तिथि पर दोपहर के समय हमारे घर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता तो वह रुष्ट हो जाते हैं। इस कारण श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं को दिया जाता है।

पितृ दोष में अवश्य करें श्राद्ध

मान्यता है कि यदि ज्योतिषीय दृष्टि से यदि कुंडली में पितृ दोष है तो निम्न परिणाम देखने को मिलते हैं

1.संतान न होना 2.धन हानि 3.गृह क्लेश 4.दरिद्रता 5.मुकदमे 6.कन्या का विवाह न होना 7.घर में हर समय बीमारी 8.नुक्सान पर नुक्सान 9.धोखे 10.दुर्घटनाएं11.शुभ कार्यों में विघ्न

कैसे करें श्राद्ध ?

इसे  ब्राहमण या किसी सुयोग्य कर्मकांडी द्वारा करवाया जा सकता है। आप स्वयं भी कर सकते हैं।

ये सामग्री ले लें -.सर्प-सर्पिनी का जोड़ा,चावल,काले तिल,सफेद वस्त्र,11 सुपारी,दूध,जल, तथा माला.।.पूर्व या दक्षिण की ओर मुंह करके बैठें.सफेद कपड़े पर सामग्री रखें.108 बार माला से जाप करें या सुख शांति,समद्धि प्रदान करने तथा संकट दूर करने  की क्षमा याचना सहित पित्तरों से प्रार्थना करें।.जल में तिल डाल के 7 बार अंजलि दें.।.शेष सामग्री को पोटली में बांध के प्रवाहित कर दें. । हलुवा,खीर,भोजन,ब्राहमण,निर्धन,गाय, कुत्ते,पक्षी को दें।

श्राद्ध के 5 मुख्य कर्म अवश्य करने चाहिए  ।

1.तर्पण-दूध,तिल,कुशा,पुष्प,सुगंधित  जल पित्तरों को नित्य अर्पित करें.

2. पिंडदान-चावल या जौ के पिंडदान,करके भूखों को भोजन भेाजन दें

3. वस्त्रदानःनिर्धनों को वस्त्र दें.

4.दक्षिणाः भोजन के बाद दक्षिणा दिए बिना एवं चरण स्पर्श बिना फल नहीं मिलता।

5.पूर्वजों के नाम पर , कोई भी सामाजिक कृत्य जैसे -शिक्षा दान,रक्त दान, भोजन दान, वृक्षारोपण ,चिकित्सा संबंधी दान आदि अवश्य करना चाहिए।

किस तिथि को किसका करें श्राद्ध ?

जिस तिथि को जिसका निधन हुआ हो उसी दिन श्राद्ध किया जाता है। यदि किसी की मृत्यु प्रतिपदा को हुई है तो उसी तिथि के दिन श्रद्धा से याद किया जाना चाहिए । यदि देहावसान की डेट नहीं मालूम तो फिर भी कुछ सरल नियम बनाए गए हैं। पिता का श्राद्ध अष्टमी और माता का नवमी पर किया जाना चाहिए। जिनकी मृत्यु दुर्घटना, आत्मघात या अचानक हुई हो , उनका चतुदर्शी का दिन नियत है। साधु- सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी पर होगा। जिनके बारे कुछ मालूम नहीं , उनका श्राद्ध अंतिम दिन अमावस पर किया जाता है जिसे सर्वपितृ श्राद्ध कहते हैं।

कौन कौन कर सकता है श्राद्ध कर्म ?

पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में संपिंडों को श्राद्ध करना चाहिए। एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करता है। पुत्री का पति एवं पुत्री का पुत्र भी श्राद्ध के अधिकारी हैं। पुत्र के न होने पर पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध कर सकते हैं।

पुत्रए पौत्र या प्रपौत्र के न होने पर विधवा स्त्री श्राद्ध कर सकती है। पत्नी का श्राद्ध व्यक्ति तभी कर सकता हैए जब कोई पुत्र न हो। पुत्रए पौत्र या पुत्री का पुत्र न होने पर भतीजा भी श्राद्ध कर सकता है। गोद लिया पुत्र भी श्राद्ध का अधिकारी माना गया है।

पितृपक्ष के पखवाड़े मंे स्त्री एवं पुरुष दोनों को ही सदाचार एवं ब्रहमचर्य का पालन करना चाहिए।

यह एक शोक पर्व होता है जिसमें धन प्रदर्शन, सौंदर्य प्रदर्शन से बचना चाहिए। फिर भी यह पक्ष श्रृद्धा एवं आस्था से जुड़ा है। जिस परिवार में त्रासदी हो गई हो वहां  स्मरण पक्ष में स्वयं ही विलासिता का मन नहीं करता।अधिकांश लोग पितृपक्ष में शेव आदि नहीं करते अर्थात एक साधारण व्यवस्था में रहते हैं।

श्राद्ध पक्ष में पत्तलों का प्रयोग करना चाहिए। इससे वातावरण एवं पर्यावरण भी दूषित नहीं होता ।

इस दौेरान घर आए अतिथि या भिखारी को भोजन या पानी दिए  बिना नहीं जाने देना चाहिए। पता नहीं किस रुप में कोई किसी पूर्वज की आत्मा आपके द्वार आ जाएं ।

चंद्र राशि के अनुसार साधारण विधि से भी कर सकते हैं श्राद्ध

मेष: मेष राशि के जातक श्राद्ध पक्ष के दौरान रांगे की धातु से बना सिक्का पानी में प्रवाहित करें। साथ ही श्राद्ध पक्ष में प्रतिपदा के दिन अपने परिजनों के नाम से गरीबों को भोजन करवाएं।

वृषभ: वृषभ राशि के जातक श्राद्धपक्ष में किसी भी दिन बटुकभैरव मंदिर में जाकर दही-गुड़ का भोग लगाएं। पितरों के नाम से 21 बच्चों को भोजन कराकर उन्हें सफेद वस्त्र भेंट करें।

मिथुन: मिथुन राशि के जातक पितरों के नाम से श्राद्ध पक्ष में किसी भी दिन पक्षियों को बाजरा खिलाएं। उनके पानी की व्यवस्था करें। इसके साथ ही किसी सार्वजनिक स्थान पर प्याउ लगवाएं।

कर्क: पितृ दोष से मुक्ति के लिए कर्क राशि के जातक श्राद्धपक्ष के किसी भी दिन 400 ग्राम साबूत बादाम बहते पानी में प्रवाहित करें। शिवलिंग का दूध से अभिषेक करें और गरीबों को दूध चावल से बनी खीर बांटें।

सिंह: सिंह के राशि के जिन जातकों की कुंडली में पितृ दोष लगा हुआ है वे श्राद्ध पक्ष में गरीबों को यथाशक्ति सूखे अनाज का दान करें और उन्हें पीले रंग के वस्त्र भेंट करें। स्वयं प्रतिदिन तुलसी के पौधे में जल चढ़ाएं। गरीबों को सूखे अनाज का दान करें

कन्या: इस राशि के जातक पूरे श्राद्ध पक्ष के दौरान सुंदरकांड का पाठ करें और अंतिम दिन यानी सर्वपितृ अमावस्या के दिन गरीब और अनाथों को भोजन वस्त्र भेंट करें। खासकर दिव्यांगों को भोजन जरूर करवाएं।

तुला: तुला राशि के जातक पितृ दोष से मुक्ति के लिए दूध-चावल से बनी खीर और नमकीन चावल गरीबों में बांटें। 7 गरीब कन्याओं को चप्पल और छाता भेंट करें।

वृश्चिक: इस राशि के जातक पितरों के नाम से 5 गरीबों को दो रंग का कंबल या गर्म वस्त्र दान करें। उन्हें भोजन करवाएं या भरपेट भोजन करने जितना पैसा दान दें। गाय को हरा चारा खिलाएं।

धनु: धनु राशि के जातक पक्षियों के दाना-पानी का इंतजाम करें। गौशाला में चारा भेंट करें। पितरों के नाम से किसी तीर्थ स्थान में गरीबों को भोजन करवाएं। पक्षियों के दाना-पानी का इंतजाम करें

मकर: मकर राशि के जातक पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध पक्ष में किसी भी दिन गंगाजल डले हुए पानी से नहाएं। किसी शनि मंदिर में जाकर दृष्टिहीन और दिव्यांग बच्चों या बड़ों को भोजन करवाएं।

कुंभ: कुंभ राशि के जातक पितृदोष के निवारण के लिए 11 श्रीफल लें और यदि पितरों के नाम पता है तो उनके नाम लेते हुए एक-एक श्रीफल बहते जल में प्रवाहित करें। गरीबों को पवित्र नदी के किनारे बैठाकर भोजन करवाएं।

मीन: इस राशि के जातक श्राद्ध पक्ष के किसी भी दिन गरीबों को दूध या मावे से बनी खाने की वस्तुएं भेंट करें। गाय जिसका हाल ही में बच्चा हुआ हो उसे हरा चारा खिलाएं। गौ दान भी किया जा सकता है।

 

मदन गुप्ता सपाटू

196,सैक्टर 20ए,चंडीगढ़

फोनः 0172-2702790, 98156-19620

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कैसे मिलता है पितरों को भोजन, श्राद्ध करने से https://apnidilli.com/16521/ Thu, 16 Sep 2021 07:41:58 +0000 http://apnidilli.com/?p=16521     अक्सर आधुनिक युग में श्राद्ध का नाम आते ही इसे अंधविश्वास की संज्ञा दे दी जाती हैं । प्रशन किया जाता है कि क्या श्राद्धों की अवधि में ब्राहमणों को खिलाया गया भोजन पित्तरों को मिल जाता है?  क्या यह हवाला सिस्टम है कि   पृथ्वी लोक में दिया और परलोक में मिल गया ? फिर जीते जी हम माता पिता को नहीं पूछते ………मरणेापरांत पूजते हैं! ऐसे कई प्रशन हैं जिनके उत्तर तर्क से देने कठिन होते हैं फिर भी उनका औचित्य अवश्य होता है।

    ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दुओं में ही मृतकों को याद करने की प्रथा है,   इसाई समाज में निधन के 40 दिनों बाद एक रस्म की जाती है जिसमें सामूहिक भोज का आयोजन होता है।इस्लाम में भी 40 दिनों बाद कब्र पर जाकर फातिहा पढ़ने का रिवाज है। बौद्ध धर्म में भी ऐसे कई प्रावधान है।तिब्बत में इसे तंत्र-मंत्र से जोड़ा गया है। पश्चिमी समाज में मोमबत्ती प्रज्जवलित करने की प्रथा है।

 प्राय: कुछ लोग यह शंका करते हैं कि श्राद्ध में समर्पित की गईं वस्तुएं पितरों को कैसे मिलती है? कर्मों की भिन्नता के कारण मरने के बाद गतियां भी भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई देवता, कोई पितर, कोई प्रेत, कोई हाथी, कोई चींटी, कोई वृक्ष और कोई तृण बन जाता है। तब मन में यह शंका होती है कि छोटे से पिंड से अलग-अलग योनियों में पितरों को तृप्ति कैसे मिलती है? इस शंका का स्कंद पुराण में बहुत सुन्दर समाधान मिलता है।

एक बार राजा करंधम ने महायोगी महाकाल से पूछा,’मनुष्यों द्वारा पितरों के लिए जो तर्पण या पिंडदान किया जाता है तो वह जल, पिंड आदि तो यहीं रह जाता है फिर पितरों के पास वे वस्तुएं कैसे पहुंचती हैं और कैसे पितरों को तृप्ति होती है?’

भगवान महाकाल ने बताया कि विश्व नियंता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है कि श्राद्ध की सामग्री उनके अनुरूप होकर पितरों के पास पहुंचती है। इस व्यवस्था के अधिपति हैं अग्निष्वात आदि। पितरों और देवताओं की योनि ऐसी है कि वे दूर से कही हुई बातें सुन लेते हैं, दूर की पूजा ग्रहण कर लेते हैं और दूर से कही गईं स्तुतियों से ही प्रसन्न हो जाते हैं।

वे भूत, भविष्य व वर्तमान सब जानते हैं और सभी जगह पहुंच सकते हैं। 5 तन्मात्राएं, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति- इन 9 तत्वों से उनका शरीर बना होता है और इसके भीतर 10वें तत्व के रूप में साक्षात भगवान पुरुषोत्तम उसमें निवास करते हैं इसलिए देवता और पितर गंध व रसतत्व से तृप्त होते हैं। शब्द तत्व से तृप्त रहते हैं और स्पर्श तत्व को ग्रहण करते हैं। पवित्रता से ही वे प्रसन्न होते हैं और वे वर देते हैं।

  पितरों का आहार है अन्न-जल का सारतत्व-

जैसे मनुष्यों का आहार अन्न है, पशुओं का आहार तृण है, वैसे ही पितरों का आहार अन्न का सारतत्व (गंध और रस) है। अत: वे अन्न व जल का सारतत्व ही ग्रहण करते हैं। शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं रह जाती है।

किस रूप में पहुंचता है पितरों को आहार?

नाम व गोत्र के उच्चारण के साथ जो अन्न-जल आदि पितरों को दिया जाता है, विश्वदेव एवं अग्निष्वात (दिव्य पितर) हव्य-कव्य को पितरों तक पहुंचा देते हैं। यदि पितर देव योनि को प्राप्त हुए हैं तो यहां दिया गया अन्न उन्हें ‘अमृत’ होकर प्राप्त होता है। यदि गंधर्व बन गए हैं, तो वह अन्न उन्हें भोगों के रूप में प्राप्त होता है। यदि पशु योनि में हैं, तो वह अन्न तृण के रूप में प्राप्त होता है। नाग योनि में वायु रूप से, यक्ष योनि में पान रूप से, राक्षस योनि में आमिष रूप में, दानव योनि में मांस रूप में, प्रेत योनि में रुधिर रूप में और मनुष्य बन जाने पर भोगने योग्य तृप्तिकारक पदार्थों के रूप में प्राप्त होता है।

जिस प्रकार बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूंढ ही लेता है, उसी प्रकार नाम, गोत्र, हृदय की भक्ति एवं देश-काल आदि के सहारे दिए गए पदार्थों को मंत्र पितरों के पास पहुंचा देते हैं। जीव चाहें सैकड़ों योनियों को भी पार क्यों न कर गया हो, तृप्ति तो उसके पास पहुंच ही जाती है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

मान्यता है कि मृत आत्माएं] सूक्ष्म शरीर धारण कर लेती हैं और हमारे ब्रहमांड में विचरण करती रहती हैं। एक निर्धारित समय में वे कहीं न कहीं किसी न किसी रुप में जन्म ले लेती हैं। जो आत्माएं जन्म नहीं लेती वे आकाश में रहती हैं जिसे ईथर भी कहा जाता है। और जब सूर्य कन्या राशि में आता है] वे पृथ्वी के सबसे निकट आ जाती हैं। ऐसे सूक्ष्म शरीर केवल वाष्प ग्रहण कर सकते हैं, भोजन नहीं। इसी लिए श्राद्ध पक्ष में ऐसी आत्माओं को जिन्हें  पित्तर कहा जाता है, उन्हें जल अर्पित किया जाता है अर्थात अंजलि दी जाती है। किसी दूसरे जीवित शरीर के माध्यम से उन्हें सांकेतिक रुप मंे भोजन अर्पित किया जाता है। प्रशन उठता है कि हमारे पूर्वज तो कहीं न कहीं कई जन्म ले चुके होते हैं। यह भी आवश्यक नहीं  है कि उन्हें मानव यानि ही पाप्त हुई हो ! यहां बात हमारे संस्कारों और अपने पूर्वजों के प्रति श्रृद्धा व्यक्त करने की है जिसे हम श्राद्ध कहते हैं।

मदन गुप्ता सपाटू,

196,सैक्टर 20ए,चंडीगढ़
फोनः 98156-19620,0172-2702790, 2577458

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10 सितंबर, शुक्रवार को मनाएं गणेश जन्मोत्सव https://apnidilli.com/16459/ Thu, 02 Sep 2021 07:43:12 +0000 http://apnidilli.com/?p=16459 हर मांगलिक कार्य में सबसे पहले श्री गणेश की पूजा करना भारतीय संस्कृति में अनिवार्य माना गया है। व्यापारी वर्ग बही खातों यहां तक कि आधुनिक बैंकों में भी लैजर्स आदि में सर्वप्रथम ‘श्री गणेशाय नम:’ अंकित किया जाता है। नव वर्ष तथा दिवाली के अवसर पर लक्ष्मी एवं गणेश जी की ही आराधना से शेष कार्यक्रम आरंभ किए जाते हैं। विवाह में लग्न पत्रिका में भी श्री गणेशायनम: लिखा जाता है। कोई भी पूजा अर्चना, देव पूजन, यज्ञ, हवन, गृह प्रवेश, विद्यारंभ, अनुष्ठान हो सर्वप्रथम गणेश वंदना ही की जाती है ताकि हर कार्य निर्विघ्न समाप्त हो।
भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी गणेश जी के प्रादुर्भाव की तिथि संकट चतुर्थी कहलाती है। परंतु महीने की हर चौथ पर भक्त गणपति की आराधना करते हैं। गणेश जी हिन्दुओं के आराध्य देव हैं जिन्हें देवताओं में विशेष स्थान प्राप्त है। विवाह हो या कोई भी महत्वपूर्ण कार्य, निर्विघ्न पूर्ण करने के लिए सर्वप्रथम गजानन की ही पूजा की जाती है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को श्री गणेश जी का जन्मोत्सव मनाया जाता है। गणपति जी का जन्म काल दोपहर माना गया है। गणेशोत्सव भाद्रपद की चतुर्थी से लेकर चतुर्दशी तक 10 दिन चलता है।
इस बार 11 दिवसीय, गणेश पर्व 10 सितंबर से लेकर 21 तारीख तक मनाया जाएगा। नौ सितंबर की रात्रि 12 बजकर 19 मिनट पर चतुर्थी आरंभ हो जाएगी तथा 10 तारीख की रात्रि 21 : 58 तक रहेगी। श्री गणेश चतुर्थी पर चित्रा नक्षत्र तथा ब्रहम योग होगा जो किसी भी शुभ कार्य आरंभ करने के लिए विशेष मुहूर्त भी होगा। यों तो हर महीने शुक्ल पक्ष में पडऩे वाली चौथी तिथि श्री गणेश या विनायक चतुर्थी कहलाती है परंतु कृष्ण पक्ष के बाद आने वाली चौथ को पत्थर चौथ या कलंक चौथ भी कहते हैं जो इसी दिन होगी।
ये बुद्धि के देवता हैं। विघ्न विनाशक हैं। चूहा इनका वाहन है। ऋद्धि-सिद्धि दो पत्नियां हैं। कलाकारों के लिए गणेश जी की आकृति बनाना सबसे सुगम है। एक रेखा में भी इनका चित्रण हो जाता है। वे हर आकृति और हर परिस्थिति में ढल जाते हैं।
गणेश जी की छोटी आखें एकाग्र होकर लक्ष्य प्राप्ति का संदेश देती हैं। बड़े कान सबकी बात सुनने की सहन शक्ति देते हैं। विशाल मस्तक परंतु छोटा मुंह इंगित करता है कि चिन्तन अधिक बातें कम की जाएं। लंबी सूंड कहती है कि हर हालत में सजग रह कर कष्टों का सामना करें। एकदन्त का अर्थ है कि हम एकाग्रचित्त होकर चिन्तन, मनन, अध्ययन व शिक्षा पर ध्यान दें । बड़ा उदर सबकी बुराई बड़े कान से सुनकर बड़े पेट में ही रखने की शिक्षा देता है। छोटे पैर उतावला न होने की प्रेरणा देते हैं। चंचल वाहन, मूषक मन की इंद्रियों को नियंत्रण में रखने की प्रेरणा प्रदान करता है।
आज सिद्धि विनायक व्रत रखा जाता है। इसे कलंक चौथ या पत्थर चौथ भी कहा जाता है।
गणेश चतुर्थी का शुभ मुहूर्त-इस दिन पूजा का शुभ मुहुर्त मध्याह्र काल में 11.03 से 13.33 तक है यानि 2 घंटे 30 मिनट तक है।
कैसे करें पूजा?
पूजन से पूर्व शुद्ध होकर आसन पर बैठें। एक ओर पुष्प, धूप, कपूर, रौली, मौली, लाल चंदन, दूर्वा, मोदक आदि रख लें । एक पटड़े पर साफ पीला कपड़ा बिछाएं । उस पर गणेश जी की प्रतिमा जो मिट्टी से लेकर सोने तक किसी भी धातु में बनी हो, स्थापित करें। गणेश जी का प्रिय भोग मोदक व लडडू है। मूर्ति पर सिंधूर लगाएं, दूर्वा अर्थात हरी घास चढ़ाएं व शोडशोपचार करें। धूप, दीप, नैवेद्य, पान का पत्ता, लाल वस्त्र तथा पुष्पादि अर्पित करें। इसके बाद मीठे मालपुओं तथा 11 या 21 लड्डुओं का भोग लगाना चाहिए। इस पूजा में संपूर्ण शिव परिवार-शिव, गौरी, नंदी तथा कार्तिकेय सहित सभी की शोडशोपचार विधि से करनी चाहिए। पूजा के उपरांत सभी आवाहित देवी देवताओं की विधि विधानानुसार विसर्जन करना चाहिए परंतु लक्ष्मी जी व गणेश जी का नहीं करना चाहिए। गणेश प्रतिमा का विसर्जन करने के बाद उन्हें अपने यहां लक्ष्मी जी के साथ ही रहने का आमंत्रण करें। यदि कोई कर्मकांडी यह पूजा संपन्न करवा रहा है तो उसका आशीष प्राप्त करें और यथायोग्य पारिश्रमिक दें। सामान्यत: तुलसी के पत्ते छोडक़र सभी पत्र-पुष्प गणेश प्रतिमा पर चढ़ाए जा सकते हैं।
1. गणपति जी की आरती से पूर्व गणेश स्तोत्र या गणपति अथर्वशीर्ष का पाठ करें ।
2. नीची नजर करके चंद्रमा को अध्र्य दें, इस मंत्र का जाप कर सकते हैं- ऽ वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ: ! निर्विध्न कुरु मे देव सर्वकार्येशु सर्वदा !!
3. इसके अलावा ओम् गं गणपत्ये नम: मंत्र गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए ही काफी है।
कलंक चतुर्थी या पत्थर चौथ क्या है? कैसे करें बचाव?
विशेष ध्यान रखें कि आज के दिन चांद न देखें । इसे कलंक चतुर्थी और पत्थर चौथ भी कहते हैं। मान्यता है कि चंद्रदर्शन से मिथ्यारोप लगने या किसी कलंक का सामना करना पड़ता है। दृष्टि धरती की ओर करके और चंद्रमा की कल्पना मात्र करके अघ्र्य देना चाहिए। मान्यता है कि एक बार गणेश जी चंद्र देवता के पास से गुजरे तो उसने गणपति का उपहास उड़ाया। गणेश जी ने शाप दिया कि आज के दिन जो तुझे देख भी लेगा वह कलंकित हो जाएगा। शास्त्रों के अनुसार भगवान कृष्ण ने भी भूलवश इसी दिन चांद देख लिया था और फलस्वरुप उन पर हत्या व चोरी का आरोप लगा था। यदि अज्ञानतावश या जाने अनजाने यह दिख जाए तो निम्न मंत्र का पाठ करें-
! सिंह प्रसेनम् अवधात, सिंहो जाम्बवता हत:!
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्रास स्वमन्तक !!
इसके अलावा आप हाथ में फल या दही लेकर भी दर्शन कर सकते हैं। यदि आप पर कोई मिथ्यारोप लगा है, तो भी इसका जाप करते रहें। दोष मुक्त हो जाएंगे।
दक्षिणावर्त गणपति की मूर्ति का रहस्य
गणेश जी की सभी मूर्तियां सीधी या उत्तर की ओर सूंड वाली होती हैं। यह मान्यता है कि गणेश जी की मूर्ति जब भी दक्षिण की ओर मुड़ी बनाई जाता है तो वह टूट जाती है। कहा जाता है कि यदि संयोगवश यदि आपको दक्षिणावर्ती मूर्ति मिल जाए और उसकी विधिवत उपासना की जाए तो अभीष्ट फल मिलते हैं। गणपति जी की बाईं सूंड में चंद्रमा का प्रभाव और दाई में सूर्य का माना गया है।
प्राय: गणेश जी की सीधी सूंड तीन दिशाओं से दिखती है। जब सूंड दाईं ओर घूमी होती है तो इसे पिंगला स्वर और सूर्य से प्रभावित माना गया है। ऐसी प्रतिमा का पूजन, विध्न विनाश, शत्रु पराजय, विजय प्राप्ति, उग्र तथा शक्ति प्रदर्शन आदि जैसे कार्यों के लिए फलदायी माना जाता है। जबकि बाईं ओर मुड़ी सूंड वाली मूर्ति को इड़ा नाड़ी से चंद्र प्रभावित माना गया है। ऐसी मूर्ति की पूजा स्थाई कार्यों के लिए की जाती है। जैसे शिक्षा, धन प्राप्ति, व्यवसाय, उन्नति, संतान सुख, विवाह, सृजन कार्य, पारिवारिक खुशहाली के लिए किया जाता है। सीधी सूंड वाली मूर्ति का सुशुम्ना स्वर माना जाता है और इनकी आराधना ऋद्धि सिद्धि, कुण्डलिनी जागरण, मोक्ष, समाधि आदि के लिए सर्वोत्तम मानी गई है। संत समाज ऐसी मूर्ति की ही आराधना करता है।
सिद्धि विनायक मंदिर में दाईं ओर सूंड वाली मूर्ति है । इसी लिए इस मंदिर की आस्था और आय आज शिखर पर है।
गणेश जी का चित्र या मूर्ति कैसे रखी जाए और वास्तु अनुसार किन बातों का रखें ख्याल ?
घर के मंदिर में तीन गणेश प्रतिमाएं नहीं रखनी चाहिए। मूर्ति का मुंह सदा आपके घर के अन्दर की ओर होना चाहिए, पीठ कभी नहीं। उनकी दृष्टि में सुख समृद्धि, ऐश्वर्य व वैभव है जो आपके यहां प्रवेश करता है। पीठ में दरिद्रता होती है जो रोग, शोक, नकारात्मक उर्जा लाती है। अत: कुछ लोग गलती से घर के द्वार या माथे पर गणेश जी की मूर्ति या संगमरमर की टाईल्स लगवा देते हैं और सारी उम्र फिर भी दरिद्र रह जाते हैं। इस दोश को दूर करने के लिए उसके समानान्तर उसके पीछे एक और चित्र या मूर्ति ऐसे लगाएं कि गणेश जी की दृष्टि निरंतर आपके घर पर रहे।
मूर्ति रखने के कुछ नियम
गणेश भगवान को विघ्नहर्ता भी कहा जाता है। घर में सुख-समृद्धि और कष्टों को दूर करने के लिए लोग घरों में गणेश जी की मूर्ति रखते हैं। इतना ही नहीं, लोग गणेश भगवान की मूर्ति गिफ्ट में भी देते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं भगवान श्री गणेश को घर में रखने के कुछ नियम होते हैं। वास्तु के अनुसार अगर इन बातों को नजर अंदाज कर दिया जाए, तो ये अशुभ भी हो सकता है।
घर में यहां न रखें मूर्ति
गणेश भगवान की मूर्ति को घर की किसी दीवार या कौने में बिना सोचे समझे नहीं रख सकते। घर में बाथरूम की दीवार पर गणेश भगवान की मूर्ति न लगाएं। इतना ही नहीं, घर के बेडरूम में भी भगवान गणेश की मूर्ति लगाना शुभ नहीं होता। ऐसा करने से वैवाहिक जीवन में कलह और पति-पत्नी के बीच बेवजह तनाव बना रहता है।
नृत्य करती मूर्ति न लाएं
वास्तुशास्त्र के अनुसार भगवान गणेश की नृत्य करती हुई मूर्ति घर में न लाएं और न ही किसी को उपहार में दें। ऐसा कहा जाता है कि गणेश जी की नृत्य करती हुई मूर्ति घर में लगाने से घर में कलह-कलेश होता रहता है। वहीं, अगर किसी को गिफ्ट में दे दो तो उनके घर भी कलह-कलेश होने लगता है।
लडक़ी की शादी में न दें गणेश
गणेश जी की मूर्ति किसी लडक़ी की शादी में देना अशुभ होता है। ऐसा इसलिए कहा जाता है कि लक्ष्मी और गणेश हमेशा साथ होते हैं। ऐसे में घर की लडक़ी के साथ गणेश जी भी दे देंगे तो घर की समृद्धि भी उनके साथ चली जाती है।
बाईं ओर हो सूंड
अगर आप घर के लिए गणपति लेने जा रहे हैं तो इस तरह के गणपति खरीदें जिनकी सूंड बाईं ओर की तरफ हो। घर के लिए हमेशा वाममुखी गणपति लाने चाहिए। क्योंकि दाईं ओर सूंड वाले गणपति की पूजा करने के लिए विशेष पूजा के नियमों का पालन करना पड़ता है।
संतान प्राप्ति के लिए लाएं बाल स्वरूप
वास्तुशास्त्र के अनुसार नवविवाहित जोड़ा या फिर संतान प्राप्ति की इच्छा रखने वाले लोगों को घर में गणपति के बाल स्वरूप की मूर्ति रखनी चाहिए। धार्मिक मान्यता है कि इससे माता-पिता के प्रति सम्मान रखने वाली संतान की प्राप्ति होती है। वहीं, नौकरी और व्यवसाय की दिक्कतें दूर करने के लिए घर में गणपति के सिंदूरी स्वरूप की फोटो लगानी चाहिए। इससे दिक्कतें दूर होती हैं और सफलता मिलती है।
बैठी मुद्रा में हो गणपति
ऐसा कहा जाता है कि अगर आप घर के लिए गणपति लेने जा रहे हैं तो गणपति की बैठी हुई मूर्ति को शुभ माना जाता है। ऐसी मूर्ति की पूजा करने से स्थाई लाभ होता है। इतना ही नहींए इस दौरान आने वाली रुकावटें भी दूर हो जाती हैं।
गणपति की ऐसी मूर्ति न लें जिसमें गणेश के कंधे पर नाग के रूप में जनेउ न हो। ऐसी मूर्ति को भी अशुभ माना जाता है, जिसमें गणेश जी का वाहन न हो। ऐसी प्रतिमा की पूजा करने से दोष लगता है। गणेश की ऐसी मूर्ति की स्थापना करें जिनके हाथों में पाश और अकुंश दोनो हो। शास्त्रों में गणपति के ऐसे ही रूप का वर्णन मिलता है।
गणेश चतुर्थी कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार, एक बार माता पार्वती स्नान करने से पहले चंदन का उपटन लगा रही थीं। इस उबटन से उन्होंने भगवान गणेश को तैयार किया और घर के दरवाजे के बाहर सुरक्षा के लिए बैठा दिया। इसके बाद मां पार्वती स्नान करने लगे। तभी भगवान शिव घर पहुंचे तो भगवान गणेश ने उन्हें घर में जाने से रोक दिया। इससे भगवान शिव क्रोधित हो गए और गणेश सिर धड़ से अलग कर दिया। मां पार्वती को जब इस बात का पता चला तो वह बहुत दुखी हुईं। इसके बाद भगवान शिव ने उन्हें वचन दिया कि वह गणेश को जीवित कर देंगे। भगवान शिव ने अपने गणों से कहा कि गणेश का सिर ढूंढ़ कर लाएं। गणों को किसी भी बालक का सिर नहीं मिला तो वे एक हाथी के बच्चे का सिर लेकर आए और गणेश भगवान को लगा दिया। इस प्रकार माना गया कि हाथी के सिर के साथ भगवान गणेश का दोबारा जन्म हुआ। मान्यताओं के अनुसार यह घटना चतुर्थी के दिन ही हुई थी। इसलिए इस दिन को गणेश चतुर्थी के रूप में मनाया जाता है।

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क्या इस वर्ष 20 जुलाई से 14 नवंबर तक चतुर्मास के दौरान विवाह या कोई अन्य शुभ कार्य नहीं होंगे? https://apnidilli.com/15992/ Fri, 16 Jul 2021 12:06:01 +0000 http://apnidilli.com/?p=15992 =हमारे देश में तीज त्योहार तथा बहुत से पर्व, धार्मिक अनुष्ठान आदि पंचांग एवं ज्योतिषीय गणना के अनुसार मनाए जाते हैं। परंतु कई बार हम लकीर के फकीर बनकर देश काल एवं परिस्थिति अनुसार उसे व्यावाहारिक नहीं बनाते तथा हजारों वर्षोंं की मान्यताओं से चिपके रहते हैं। कुछ ऐसी ही धारणा एवं मान्यताएं 20 जुलाई से 14 नवंबर के मध्य चलने वाले चतुर्मास या चौमासा अर्थात चार मास की अवधि का है जिसमें कोई भी मंगल कार्य-जैसे विवाह, गृहप्रवेश, व्यवसाय आरंभ करना आदि वर्जित माने जाते हैं।
=देवताओं का यह शयनकाल देवशयनी 20 जुलाई 2019 से 14 नवंबर, देव प्रबोधिनी तक 4 मास चलेगा जिसके अंतर्गत शुभ कार्य वर्जित कहे गए हैं परंतु आधुनिक युग में ऐसा संभव नहीं है। इस मध्य ज्योतिष के अनुसार हर प्रकार के पर्व आएंगे और मनाए जाएंगे। मंगल कार्य सतयुग या अन्य युगों में चौमासा के समय वर्जित होंगे परंतु क्या कलयुग में चार महीने काम रोके जा सकते हैं? अत: धार्मिक कृत्य देश, काल, समय एवं पात्र के अनुसार परिवर्तित करके सुगम बनाए जाने की आवश्यकता है, ऐसा मेरा व्यक्तिगत मत है क्योंकि पौराणिक काल में धार्मिक कार्यों को करने के अलावा कोई विशेष कार्य नहीं होता था परंतु आज परिस्थितियां बदल चुकी हैं। कोराना काल ने वैसे ही दो साल से विवाह आदि पर ग्रहण लगा रखा है। चौमासा एक धार्मिक आस्था, विश्वास एवं परंपरा का द्योतक है। वास्तव में इन दिनों बाढ़ आने, पानी दूषित होना, रास्ते बंद होने, बीमारियां फैलने, जंगल में जहरीले कीड़े मकौड़े पैदा होने एवायरस फैलने आदि की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। बदलते मौसम में शरीर में रोगों का मुकाबला करने अर्थात प्रतिशोधक क्षमता क्षीण हो जाती है। इन कारणों से पुरातन काल में, यात्रा करना या मंगल आयोजन करना जन हिताय में बंद कर दिया गया है ठीक वैसे ही जैसे आधुनिक समय में समाज के लिए कोरोना काल में कुछ नियम बनाए गए हैं। यदि आपने रामायण धारावाहिक ध्यान से देखा हो तो उसमें भगवान राम चिंता व्यक्त करते हैं। चौमासा भी बीत चुका है, अब हमें लंका की ओर प्रस्थान कर देना चाहिए। चर्तुमास की अवधारणा आदिकाल से चली आ रही है। उन दिनों सड़क मार्ग, रास्तों में ठहरने आदि की व्यवस्थाए नहीं थी। विवाह तथा अन्य शुभ कार्य खुले आकाश के नीचे ही होते थे। कोविड कालखंड-2020 से 2023 तक की एक अलग व्यवस्था को छोड़ कर, आज आप वर्षा ऋतु में कहीं भी जा सकते हैं, विवाह आदि बंद हालों में कर सकते हैं। पंचांग के अनुसार जुलाई से लेकर नवंबर तक कई त्योहार आएंगे और मनाए जाएंगे, विवाहों के भी बहुत मुुहूर्त हैं।
हमारे पौराणिक ग्रन्थों में चतुर्मास के विषय में क्या कहा गया है,यह जानना भी आवश्यक है।
=आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसे पद्मा एकादशी भी कहते हैं।
=देवशयनी एकादशी प्रसिद्ध जगन्नाथ रथयात्रा के तुरन्त बाद आती है ।
=इस वर्ष देवशनी एकादशी 20 जुलाई 2021 के दिन मनाई जानी है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ भी माना गया है। देवशयनी एकादशी को हरिशयनी एकादशी और पद्मनाभा के नाम से भी जाना जाता है। हरिशयनी एकादशी, देवशयनी एकादशी, पद्मा एकादशी, पद्मनाभा एकादशी सभी उपवासों में देवशयनी एकादशी व्रत श्रेष्ठतम कहा गया है। इस व्रत को करने से भक्तों की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होतीहैं, तथा सभी पापों का नाश होता है। इस दिन भगवान विष्णु की विशेष पूजा अर्चना करने का महतव होता है क्योंकि इसी रात्रि से भगवान का शयन काल आरंभ हो जाता है जिसे चातुर्मास या चौमासा का प्रारंभ भी कहते हैं। इस दिन से गृहस्थ लोगों के लिए चातुर्मास नियम प्रारंभ हो जाते हैं।
देवशयनी एकादशी नाम से ही स्पष्ट है कि इस दिन श्रीहरि शयन करने चले जाते हैं। इस अवधि में श्रीहरि पाताल के राजा बलि के यहां चार मास निवास करते हैं।
चातुर्मास असल में संन्यासियों द्वारा समाज को मार्गदर्शन करने का समय है। आम आदमी इन चार महीनों में अगर केवल सत्य ही बोले तो भी उसे अपने अंदर आध्यात्मिक प्रकाश नजर आएगा।
इन चार मासों में कोई भी मंगल कार्य जैसे विवाह, नवीन गृहप्रवेश आदि नहीं किया जाता है। ऐसा क्यों? तो इसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि आप पूरी तरह से ईश्वर की भक्ति में डूबे रहें, सिर्फ ईश्वर की पूजा-अर्चना करें। वास्तव में यह वे दिन होते हैं जब चारों तरफ नकारात्मक शक्तियों का प्रभाव बढऩे लगता है और शुभ शक्तियां कमजोर पडऩे लगती हैं ऐसे में जरूरी होता है कि देव पूजन द्वारा शुभ शक्तियों को जाग्रत रखा जाए। देवप्रबोधिनी एकादशी से देवता के उठने के साथ ही शुभ शक्तियां प्रभावी हो जाती हैं और नकारात्मक शक्तियां क्षीण होने लगती हैं।
चातुर्मास कब से शुरू होगा?
=पंचांग के अनुसार 20 जुलाई, मंगलवार को आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से चातुर्मास शुरू होगा। इस एकादशी से भगवान विष्णु विश्राम की अवस्था में आ जाते हैं। 14 नवंबर 2021 को देवोत्थान एकादशी पर विष्णु भगवान शयन काल आरंभ होता है। मान्यता है कि चातुर्मास में शुभ और मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं।
देवशयनी एकादशी व्रत का शुभ मुहूर्त
देवशयनी एकादशी तिथि प्रारम्भ- जुलाई 19, 2021 को 22 :00 बजे
देवशयनी एकादशी समाप्त- जुलाई 20, 2021 को 19:17 बजे
देवशयनी एकादशी व्रत पारण-जुलाई 21, 05:36 से 08: 21 बजे
देवशयनी एकादशी के चार माह के बाद भगवान् विष्णु प्रबोधिनी एकादशी के दिन जागतें हैं।
देव उठानी एकादशी ग्यारस
2021 पूजा का मुहूर्त
=साल 2021 में देव उठानी एकादशी 15 नवंबर की है, इसका शुभ मुहूर्त और समय कुछ इस प्रकार है।
=देवउठनी एकादशी ग्यारस पारण मुहूर्त-15 नवंबर को, 13:09:56 से 15:18:49 तक।
=हरी वासर समाप्त होने का समय-15 नवंबर को 13:02:41 पर।
=देवउठनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह-इस दिन तुलसी विवाह का आयोजन भी किया जाता है, तुलसी के पौधे व शालिग्राम की यह शादी सामान्य विवाह की तरह पुरे धूमधाम से की जाती है।
=एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है।
=एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है।
पूजा विधि
वे श्रद्धालु जो देवशयनी एकादशी का व्रत रखते हैं, उन्हें प्रात :काल उठकर स्नान करना चाहिए। पूजा स्थल को साफ करने के बाद भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर विराजमान करके भगवान का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए।भगवान विष्णु को पीले वस्त्र, पीले फूल, पीला चंदन चढ़ाएं। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित करें। भगवान विष्णु को पान और सुपारी अर्पित करने के बाद धूप, दीप और पुष्प चढ़ाकर आरती उतारें और इस मंत्र द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति करें:-
मंत्र : ‘सुप्ते त्वयि जगन्नाथ
जगत्सुप्तं भवेदिदम्।
विबुद्धे त्वयि बुद्धं च जगत्सर्व चराचरम्।।
अर्थात हे जगन्नाथ जी! आपके निद्रित हो जाने पर संपूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर संपूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं।
इस प्रकार भगवान विष्णु का पूजन करने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन या फलाहार ग्रहण करें।
देवशयनी एकादशी पर रात्रि में भगवान विष्णु का भजन व स्तुति करना चाहिए और स्वयं के सोने से पहले भगवान को शयन कराना चाहिए। चातुर्मास में आध्यात्मिक कार्यों के साथ-साथ पूजा पाठ का विशेष महत्व बताया गया है। चातुर्मास में सावन (श्रावण मास) के महीने को सर्वोत्तम मास माना गया है।
श्रावण मास भगवान शिव को समर्पित होता है। इसमें भगवान शिव और माता पार्वती धरती पर भ्रमण करने निकलते हैं और इस दौरान पृथ्वी लोक के कार्यों की देखभाल भगवान शिव ही करते हैं।
माना जाता है कि चातुर्मास में जरूरतमंद व्यक्तियों को दान देने से भगवान प्रसन्न होते हैं।

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झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई https://apnidilli.com/15157/ Thu, 06 May 2021 09:04:57 +0000 http://apnidilli.com/?p=15157 भारतीय संस्कृति में जहां एक ओर देवताओं की आराधना की गई है वहीं देवियों की वन्दना भी। हमारे यहां ईश्वर धर्म की स्थापना और दुष्टों के विनाश के लिए मनुष्य रूप में अवतरित होता आया है, तो देवी परमेश्वरी ने भी नारी रूप धारण कर दुष्टों का विनाश किया है। भगवान शिव ने समाज में शान्ति और सुव्यवस्था कायम करने के लिए त्रिपुर राक्षस का विनाश किया तो दुर्गा ने घोर संग्राम में परम तेजस्वी शक्तिशाली महिषासुर का संहार कर देवताओं का कल्याण किया।
गौतम, कणाद, वशिष्ठ, वाल्मीकि, गर्ग, भृगु, भारद्वाज के नाम आदर के साथ लिए जाते हैं तो गार्गी, मैत्रेयी, सीता, सावित्री, अनसुइया, अरुन्धती, लोपामुद्रा के नाम भी सम्मान के साथ याद किए जाते हैं। जब तक आकाश में सूर्य और चन्द्रमा का उदय होता रहेगा, जब तक हिमालय स्थिर रहेगा और गंगा प्रवाहित होती रहेगी तब तक ये देवियाँ भी भारतीय जनमान से अलग से नहीं हो सकतीं।
हमारी देवियों ने केवल आध्यात्म दर्शन, समाज और साहित्य के क्षेत्र में ही उल्लेखनीय कार्य नहीं किया बल्कि युद्ध और वीरता के क्षेत्र में भी भारतीय ललनाओं का विश्व में कोई मुकाबला नहीं कर सकता। राजस्थान की हजारों देवियों ने अपनी जाति, धर्म और संस्कृति की प्रतिष्ठा के लिए जौहर व्रत का पालन करके इतिहास में अमर स्थान प्राप्त किया है। युद्ध में जिन अनेक देवियों ने शत्रुओं के दाँत खट्टे किये, उनमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई अग्रगण्य है। सर ह्यू रोज ने रानी की प्रंशसा में अपनी डायरी में लिखा है-‘महारानी का उच्चकुल, आश्रितों और सिपाहियों के प्रति उनकी असीम उदारता और कठिन समय में भी अडिग धीरज, उनके इन गुणों ने रानी को हमारा एक अज्ञेय प्रतिद्वन्द्वी बना दिया था। वह शत्रु दल की सबसे बहादुर और सर्वश्रेष्ठ सेना नेत्री थी।Ó
सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निम्बालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सन् 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दियापर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।
ब्रिटिश राज ने बालक दामोदर के खिलाफ अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना जब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज को रानी के सालाना खर्च में से काटने का फरमान जारी कर दिया। इसके परिणामस्वरूप रानी को झाँसी का किला छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।
झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।
1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढऩा शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली।
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक खतरनाक भी थी।
महारानी लक्ष्मीबाई का कुशल योद्धा और वीरांगना के अलावा एक योग्य प्रशासिका, पतिव्रता और ममतामयी जननी थी। जीवन-भर में वे अपने पति श्री गंगाराव के प्रति निष्ठावान रहीं। मरने पर उनकी परम्परा को कायम रखा और अपने दत्तक पुत्र दामोदरराव को सदा एक स्नेहमयी माँ के समान जहाँ गई पीठ पर बाँधें रहीं। 19 नवम्बर 1835 ईस्वी के दिन काशी में एक बालिका का जन्म हुआ। इस बालिका का नाम मणिकार्णिका था, जिसे प्यार से मनु कहते थे। इसके पिता का नाम मोरोपंत और माता का नाम भागीरथीबाई था। यही बालिका बाद में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई कहलाई, जिसने भारत को स्वतंत्र करवाने के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी थी।
झांसी राज्य की कुलदेवी महालक्ष्मी का झांसी में एक विशाल मन्दिर था। इस मन्दिर में पूजा-पाठ, कीर्तन, उत्सव आदि के लिए दो गांव रानी लक्ष्मीबाई के नाम थे जो अंग्रेजों ने ले लिये थे। झांसी के किले में अब अंग्रेजी फौज आ गई थी। रानी इस अपमान में बौखला गई। वह अंग्रेजों को सबक देना चाहती थीं। इन्हीं दिनों श्री तात्या टोपे रानी लक्ष्मीबाई से मिलने आए। उन्होंने रानी को अन्य राज्यों के समाचार सुनाए और बताया कि किस प्रकार भारत में अंदर-ही-अंदर अंग्रेजों के विरुद्ध आग भड़क रही है। अब रानी घुड़सवारी करने के लिए महलों से बाहर भी जाने लगीं। उनकी पोशाक मर्दाना होती थी। इन्हीं दिनों रानी की इच्छा अपनी जन्मभूमि काशी जाने की हुई, पर डिप्टी कमिश्नर ने इसकी आज्ञा नहीं दी। लोगों में इस बात को लेकर काफी क्रोध फैला। रानी की तैयारी चल रही थी। दूसरे, राज्यों के समाचार उन्हें बराबर मिलते रहते थे। शस्त्रों का भंडार इक_ा किया जा रहा था। जासूसी गतिविधियाँ बढ़ रही थीं। तात्या टोपे, नाना साहब तथा अंग्रेजों के विरोधी अन्य सामंत-सरदार अपने-अपने तरीकों से काम कर रहे थे।
18 जून 1858 को अंग्रेजी फौज रानी की बहादुरी को देखकर दंग थे। पर किसी भी तरह इस मौके को हाथ से जाने देना नहीं चाहते थे। रानी अंग्रेजों के व्यूह को चीरती हुई साफ निकल गई। आगे नाला था। रानी का घोड़ा क्योंकि नया था, इसलिए वह अड़ गया। बहुत कोशिश करने पर भी वह आगे नहीं बढ़ा। इतने में पीछा करते कुछ अंग्रेज सिपाही रानी के पास आ पहुँचे। एक गोरे ने बंदूक से गोली दागी। गोली रानी को लगी। खून बहने लगा। पर रानी किसी भी तरह अंग्रेजों के हाथों में पडऩा नहीं चाहती थीं। उन्होंने तलवार से उस गोरे को मौत के घाट उतार दिया। उनकी इच्छा थी कि मरने पर उनके शरीर को कोई अंग्रेज छूने न पाएं। अत: सिपाही पास ही स्थित श्री गंगादास की कुटी में रानी को ले गए और भरी आँखों से उन्होंने रानी का अंतिम संस्कार कर दिया।
रानी लक्ष्मी बाई प्रथम स्वाधीनता संग्राम के क्रम में स्मरणीय रही है। अगर वे चाहतीं तो स्वयं और अपनी आने वाली पीढिय़ों को सुख-सागर उपलब्ध करवा सकती थीं, किंतु उन्हें गुलामी की शानो-शौकत की अपेक्षा स्वाधीनता के रक्षार्थ जूझना सुखप्रद लगा। अंग्रेज इतिहासकारों ने इस वीरांगना का चरित्र तक अपनी लेखनी से खराब करना चाहा। महज इसलिए कि उसने उनकी दासता स्वीकार नहीं की, उनके अखण्ड साम्राज्य को नहीं स्वीकारा, उन्हें चुनौती देने का साहस किया। जिसके लिये वे अमर हो गईं और आजादी के दीवानों की प्रेरणा स्रोत बन गईं।

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कोरोना काल में हरी चाय से कैसे बढ़ाएं प्राण शक्तिया इम्युनिटी? https://apnidilli.com/15005/ Thu, 22 Apr 2021 10:55:00 +0000 http://apnidilli.com/?p=15005 चीन में जब चाय की अचानक खोज हुई, उस समय किस ने सोचा होगा कि कभी ये जंगली पत्तियां जिसे पशु चर कर एक्टिव हो जाते थे, एक दिन यह कैंसर से बचने, कोरोना से लडऩे और चिर यौवन प्राप्ति में सहायक होगी। ग्रीन टी का उपयोग दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। लेकिन यदि आप इसका प्रयोग ऐसे करें, तो आज की कोरोना परिस्थिति में यह एक अमृत सिद्ध होगी।
सामग्री: अच्छी ग्रीन टी, श्यामा और रामा की तुलसी की 15 पत्तियां, अदरख, नींबू, शहद या शुगर फ्री टेबलेट, शक्कर, बारीक मेथी दाने, गिलोय की डंडियां, अश्व गंधा, पत्थर चटट की पत्तियां या इनका चूर्ण, नीम की ताजी पत्तियां, अर्जुन छाल का पाउडर, दालचीनी, लौंग, काली मिर्च, कच्ची हल्दी या पिसी, हमदर्द का सुलेमानी नमक तथा पुदीने की तीन ताजी पत्तियां।
इनमें से कई औषधीय पौधे आप अपने किचन गार्डन या गमलों में भी लगा सकते हैं। कुछ सामग्री आपको बाजार में मिल जाएगी। यदि इनमें से सारी सामग्री न भी मिले तो चिंता न करें। फिलहाल जो भी मिले, उससे शुरुआत कर लें। उपरोक्त सामग्री अपने सदस्यों की संख्यानुसार व अंदाजे से कम या अधिक लें ।
विधि: अपनी आवश्यकता व सदस्यों की संख्यानुसार एएक रात पहले एक चम्मच मेथी दाने, गिलोय की डंडियां, अश्व गंधा, पत्थर चटट की पत्तियां या इनका चूर्ण, नीम की ताजी पत्तियां, अर्जुन छाल का पाउडर, दालचीनी, लौंग, काली मिर्च, अदरख, कच्ची हल्दी या पाउडर पानी में भिगो दें।
सुबह मिक्सी में इन्हें पीस लें और एक पतीले या पैन में पानी डाल कर 15 मिनट उबलने दें । जब पानी पौना रह जाए तो गैस बंद करके इसमें ग्रीन टी डाल कर ढक्कन लगा दें और 5 मिनट प्रतीक्षा करें।
कप में एक ताजा नींबू निचोड़ें, एक चम्मच शहद या शुगर फ्री टेबलेट या ब्राउन शक्कर डालें और चुटकी भर सुलेमानी नमक स्वादानुसार तथा पुदीने की तीन ताजी पत्तियां डालकर चाय छान लें। चम्मच से चाय हिला कर मार्निंग टी से रहिए पूरा दिन चुस्त-फुर्त।
इसे काढ़ा या दवाई समझने की बजाय चाय में अपनी पसंद के अनुसार सामग्री घटा या बढ़ा सकते हैं
गर्मियों में इसे आप बर्फ डालकर कोल्ड टी के तौर पर दिन में कई बार पी सकते हैं।
कैसे करती है यह चाय अपना काम?
मेथी आपका रक्तचाप और शुगर लेवल नियंत्रित करती है। अदरख शरीर को सर्र्दी में उर्जा प्रदान करती है। नींबू विटामिन सी की पूर्ति के अलावा फैट्स कम करता है। शहद पेट साफ करता है और नेत्र ज्योति ठीक रखता है। पत्थर चटट व सुलेमानी नमक के नियमित प्रयोग से गॉल ब्लैडर या किडनी में कभी पत्थरी नहीं बनती। पुदीना खुश्बू प्रदान करने के अलावा हाजमा दुरुस्त रखता है, अपच नहीं होने देता । गिलोय, अर्जुन छाल, अश्वगंधा, दालचीनी, काली मिर्च हल्दी आपकी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं।
गर्मियों में आप इसमें बर्फ डालकर कोल्ड टी का लुत्फ उठा सकते हैं।
हरी चाय हृदय रोग की संभावना कम करती है, कोलेस्ट्रोल घटा के वजन कम करती है। यह एंटी आक्ॅसीडेंट, एंटी एजिंग, रिफरेशिंग, कैंसर से लडऩे की क्षमता प्रदान करने वाली है। इसके नियमित सेवन से पेट का हाजमा ठीक रहता है, चेहरे पर झुर्रियां जल्दी नहीं आती। आप का यौवन बना रहता है। कई रोग दूर रहते हैं। इम्युनिटी सिस्टम अच्छा हो जाता है। कई बीमारियों के प्रति शरीर के रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। मस्तिष्क उत्तकों को मृत होने से रोका जा सकता है। कुल मिला कर आज के समय यानी कोरोना काल में यह सबसे बढिय़ा इम्युनिटी बूस्टर है।
यही नहीं त्वचा के लिए इसी चाय में यदि आप एलोवेरा मिला कर इसकी आइस क्यूब्ज़ बना कर रख लें और चेहरे पर रोज लगाएं, आपकी स्किन, झुर्रियां रहित एवं कांतिमय रहेगी।
इस चाय का प्रयोग हमारा परिवार गत 40 वर्षों से कर रहा है। अत: पूर्णतया बच्चों से लेकर किसी भी आयु के लोगों के लिए गुणकारी है।
बस आज से ही आरंभ कर दीजिये इसका नियमित सेवन और रहिए युवा और सदा संक्रमण मुक्त।

मदन गुप्ता सपाटू, मो- 9815619620.
458 सैक्टर 10,पंचकूला

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भारत के महाभारत काल का ऐतिहासिक तीर्थस्थल हिन्दू आस्था का केंद्र: अवंतिका देवी मंदिर https://apnidilli.com/14595/ Tue, 09 Mar 2021 11:29:22 +0000 http://apnidilli.com/?p=14595 धार्मिक जागृति के स्रोत देदीप्यमतान ‘अवंतिका देवीय (अम्बिका देवी) का मंदिर साधू-संतों तथा श्रद्धालु-भक्तजनों की श्रद्धा एवं आकर्षण का केन्द्र है। विशेषकर पश्चिमी उत्तर-प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं राजस्थान आदि प्रदेशों से प्रतिवर्ष लाखों श्रद्धालु, दर्शनार्थी यहां की यात्रा करते हैं।
अवंतिका देवी के परम पवित्र मंदिर का महल एवं प्रसिद्धि बहुत अधिक है। इस मंदिर के बराबर से पतित पावनी भागीरथी गंगाजी बह रही है। यह मंदिर बहुत ही रमणीक है। जितने भी पृथ्वी पर सिद्धपीठ हैं वह सब सतीजी के अंग हैं, लेकिन यह सिद्धपीठ सतीजी का अंग नहीं है। इस सिद्धपीठ पर जगत जननी करुणामयी माता भगवती अवंतिका देवी (अम्बिका देवी) स्वयं साक्षात प्रकट हुई थीं। मंदिर में दो संयुक्त मूर्तियां हैं, जिनमें बाईं तरफ मां भगवती जगदम्बा की है और दूसरी दायीं तरफ सतीजी की मूर्ति है। यह दोनों मूर्तियाँ ‘अवंतिका देवीय के नाम से प्रतिष्ठित हैं।
माँ भगवती अवंतिका देवी को पोशाक वस्त्रादि नहीं चढ़ाया जाता है, अपितु सिन्दूर व देशी घी का चोला (आभूषण) चढ़ाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि जो भी भक्त माँ भगवती अवंतिका देवी पर सिन्दूर व देशी घी का चोला (आभूषण) चढ़ाता है, माता अवंतिका देवी उसकी समस्त मनोकामना पूर्ण करती हैं। माँ अवंतिका देवी अत्यंत ही दयालु हैं। मां भगवती अपने भक्त पर बहुत जल्दी कृपा करती हैं। कई भक्तनों द्वारा थोड़े ही समय में सेवा करके माता भगवती अवंतिका देवी के साक्षात दर्शन किये हैं। कुंआरी युवतियां अच्छे पति की कामना से माता अवंतिका देवी का पूजन करती हैं। रुक्मणि ने भगवान कृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए इन्हीं अवंतिका देवी का पूजन किया था। भगवान श्री कृष्ण ने इसी मंदिर से उनकी इच्छा पर हरण किया था।
‘अवंतिका देवी्य का मंदिर बुलंदशहर जनपद की अनूपशहर तहसील के अंतर्गत जहाँगीराबाद से 15 किमी. दूर पतित पावनी गंगा नदी के तट पर निर्जन स्थान पर स्थित है। यहां न कोई ग्राम है, न कस्बा है। यहां पर मां अवंतिका देवी के श्रद्धालू भक्तजनों द्वारा यात्रियों के ठहरने हेतु बनवायी गयी धर्मशालाएं, साधू-संतों की कुटिया तथा आश्रम हैं। आधुनिक चकाचौंध से दूर, कोलाहल से रहित, प्रदूषण मुक्त प्रकृति का सुंदर, सुरभ्य वातावरण तथा पतित पावनी गंगा नदी का सान्निध्य होने के कारण यह स्थल साधू-संतों की साधना एवं तपोस्थली बनी हुई है।
यहां साधू-संत साधना तथा मां भगवती की आराधना करते हैं। इन्हीं साधु-संतों में संत शिरोमणि तपोनिष्ट संत महानन्द ब्रह्मड्ढचारी जी हैं। मां भगवती अवंतिका देवी मंदिर के अतिरिक्त यहां अन्य दर्शनीय स्थलों में रुक्मणि कुण्ड, महानन्द ब्रह्मड्ढचारी का विशाल रुक्मणि बल्लभ धाम आश्रम, यज्ञशाला तथा उनकी साधना स्थली है। इस अवंतिका देवी मंदिर तथा रुक्मणि कुण्ड से एक पौराणिक कथा भी जुड़ी हुई है। यह कथा द्वापर युग की है तथा रुक्मणि-कृष्ण विवाह से संबंधित है। किवदंतियों के अनुसार बुलन्दशहर जनपद की तहसील अनूपशहर के अंतर्गत स्थित वर्तमान कस्बा अहार द्वापर युग में राजा भीष्मक की राजधानी कुण्डिनपुर नगर था। इस कुण्डिन पुर नगर के पूर्व में अवंतिका देवी का मंदिर, पश्चिम के दरवाजे पर शिवजी का मंदिर, उत्तर के दरवाजे पर पतित पावनी गंगाजी बह रही थीं तथा दक्षिण के दरवाजे पर एक बगीचा और हनुमान जी का मंदिर स्थित था। कुण्डिन नरेश महाराज भीष्मक के पांच पुत्र तथा एक सुंदर कन्या थी। सबसे बड़े पुत्र का नाम रुक्मी था और चार छोटे थे। जिनके नाम क्रमश: रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्मपाली थे। इनकी बहिन थीं सती रुक्मिणी।
राजकुमारी रुक्मिणी बाल्यावस्था से अपनी सहेलियों के साथ कुण्ड (रुक्मिणी कुण्ड) में स्नान करके माता अवंतिका देवी के मंदिर में जाकर माता अवंतिका देवी (अंबिका देवी) का नाना प्रकार से पूजन करती थीं। पूजन करने के पश्चात प्रतिदिन माता भगवती अवंतिका देवी से प्रार्थना करती थीं, कि ‘हे जगतजननी! हे करुणामयी माँ भगवती!! मुझे श्रीकृष्ण ही वर के रूप में प्राप्त हों। राजकुमारी रुक्मिणी जब विवाह योग्य हुई तो उनके पिता राजा भीष्मक को उनके विवाह की चिंता हुई। राजा भीष्मक को जब यह मालूम हुआ कि रुक्मिणी श्रीकृष्ण को पति के रूप में चाहती है तो वह इस विवाह के लिए सहर्ष तैयार हो गये। जब इस विवाह के बारे में राजा भीष्मक के सबसे बड़े पुत्र रुक्मी को मालूम हुआ तो उसने श्रीकृष्ण-रुक्मिणी विवाह का विरोध किया। राजकुमार रुक्मी ने सती रुक्मिणी का विवाह चेदि नरेश राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल से उनके हाथ में मौहर बांधकर तय कर दिया। शिशुपाल ने अपनी सेना को विवाह से तीन दिन पहले ही कुण्डिनपुर के चारों ओर तैनात कर दिया और हुक्म दिया कि श्रीकृष्ण को देखते ही बंदी बना लिया जाए। राजकुमारी को जब यह मालूम हुआ कि उनका बड़ा भाई रुक्मी उनका विवाह शिशुपाल के साथ करना चाहता है तो वह बहुत दु:खी हुई।
राजकुमारी रुक्मिणी ने एक ब्राह्मड्ढण के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण के पास संदेश भेजा कि उसने मन ही मन श्रीकृष्ण को पति के रूप में वरण कर लिया है, परंतु उसका बड़ा भाई रुक्मी उसका विवाह उसकी इच्छा के विरुद्ध, जबरन चेदि के राजा के पुत्र शिशुपाल के साथ करना चाहता है। इसलिए वह वहाँ आकर उसकी रक्षा करे। रुक्मिणी की रक्षा की गुहार पर भगवान श्रीकृष्ण अहार पहुंचे तथा रुक्मिणी की इच्छानुसार इसी माता अवंतिका देवी मंदिर से रुक्मिणी का हरण उस समय किया जब वह मंदिर में माता भगवती अवंतिका देवी का पूजन करने गयी थी।
जब श्रीकृष्ण रुक्मिणी को रथ में बिठाकर द्वारिका के लिए चले तो उनको राजा शिशुपाल, जरासिन्धु तथा राजकुमार रुक्मी की सेनाएं ने चारों ओर से घेर लिया। उसी समय उनकी मदद के लिए उनके बड़े भाई बलराम भी अपनी सेना लेकर आ गये। घोर-युद्ध हुआ। युद्ध में राजा शिशुपाल आदि की सेनाएँ हार गयीं। उसी समय से कुण्डिपुर का नाम अहार पड़ गया।
अवंतिका देवी मंदिर के पीछे उ.प्र. सरकार के पर्यटन विभाग ने एक धर्मशाला का निर्माण कराया है तथा अनेक धार्मिक भक्तों ने यात्रियों के लिये स्थान बनाये हैं। आज से 11 वर्ष पूर्व गंगा में भयंकर बाढ़ आई मंदिर के चारों ओर पानी-पानी हो गया। उसी समय देवीभक्त केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोन के प्रयास से लाखों रुपये के खर्चे से स्टोन पिचिंग और गोले बनवाये, ताकि पानी कटाव न करे। उसी समय सर्वेक्षण कराकर इस 8 किलोमीटर क्षेत्र को पर्यटन केंद्र बनाने का भी निर्णय लिया क्योंकि यहां पर मां अवन्तिका और साथ बाबा खडगसिंह का डेरा, शिवजी का अम्बकेश्वर मन्दिर, सिद्धबाबा का मंदिर, अली हुसैन का उर्स स्थल अहार आदि 5 तीर्थ स्थल हैं। पर सरकार बदल जाने से सब कुछ रुक गया। अब यहाँ पर स्वामी महानन्द जी ब्रह्मड्ढचारी जी कृपा से एक संस्कृत पाठशाला, मन्दिर और गऊशाला भी बनी है तथा रुक्मिणी बल्लभ धाम के समीप पश्चिम-दक्षिण दिशा में रुक्मिणी कुण्ड स्थित है। इस कुण्ड में रुक्मिणी स्नान करके अवंतिका देवी का पूजन करने जाती थीं। इसलिए इस कुण्ड का नाम रुक्मिणी कुण्ड पड़ा।

-महेश चन्द्र शर्मा (पूर्व महापौर)

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कैसे और कब मनाएं श्री महाशिवरात्रि? https://apnidilli.com/14506/ Fri, 05 Mar 2021 11:42:25 +0000 http://apnidilli.com/?p=14506 11 मार्च, गुरुवार को महाशिवरात्रि कई शुभ संयोगों में आ रही है। इस दिन एक ही मकर राशि में 4 बड़े ग्रह-शनि, गुरु, बुध तथा चंद्र, निष्ठा नक्षत्र में होंगे तथा आंशि काल सर्प योग भी रहेगा। ऐसे अवसर पर जिन लोगों की कुंडली में कालसर्प योग है, वे इसकी शांति करवा सकते हैं।
इस योग में भगवान शिव की पूजा का विशेष महत्व होगा और जातक यदि अपनी अपनी राशि अनुसार भगवान की आराधना करेंगे तो इससे उनकी कई मनोकामनाएं पूरी हो सकती हैं। इस दिन रुद्राभिषेक करना शुभदायक होगा। इस दुर्लभ योग में भगवान शिव की आराधना करने पर दोष भी दूर हो सकेंगे और कष्टों से मुक्ति मिलेगी।
हिंदू पंचांग के अनुसार, महाशिवरात्रि पर्व माघ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है। महाशिवरात्रि के दिन भगवान भगवान शिव की विधि-विधान से पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव का व्रत रखने वालों सौभाग्य, समृद्धि और संतान की प्राप्ति होती है।
शिवलिंग भगवान शिव का प्रतीक है। शिव का अर्थ है : कल्याणकारी और लिंग का अर्थ है सृजन? सृजनहार के रूप में लिंग की पूजा होती है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है प्रतीक। भगवान शिव अनंत काल के प्रतीक हैं। मान्यताओं के अनुसार, लिंग एक विशाल लौकिक अंडाशय है, जिसका अर्थ है ब्रह्माण्ड। इसे ब्रह्मांड का प्रतीक माना जाता है। शिव जी को महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ के नामों से भी जाना जाता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव ने ही धरती पर सबसे पहले जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया था, इसीलिए भगवान शिव को आदिदेव भी कहा जाता है।
महाशिवरात्रि पूजा का शुभ मुहूर्त
=महाशिवरात्रि तिथि 11 मार्च 2021 (बृहस्पतिवार)
=चतुर्थी तिथि प्रारंभ : 11 मार्च 2021 को दोपहर 2.39 मिनट से
=चतुर्थी तिथि समाप्त : 12 मार्च 2021 को दोपहर 3. 2 मिनट तक
=शिवरात्रि पारण समय : 12 मार्च की सुबह 6 बजकर 34 मिनट से शाम 3 बजकर 2 मिनट तक
इस दिन काले तिलों सहित स्नान करके व व्रत रख के रात्रि में भगवान शिव की विधिवत आराधना करना कल्याणकारी माना जाता है। दूसरे दिन अर्थात अमावस के दिन मिष्ठान्नादि सहित ब्राहम्णों तथा शारीरिक रुप से अस्मर्थ लोगों को भोजन देने के बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिए। यह व्रत महा कल्याणकारी होता है और अश्वमेध यज्ञ तुल्य फल प्राप्त होता है। इस दिन किए गए अनुष्ठानों, पूजा व व्रत का विशेष लाभ मिलता है। इस दिन चंद्रमा क्षीण होगा और सृष्टि को ऊर्जा प्रदान करने में अक्षम होगा। इसलिए अलौकिक शक्तियां प्राप्त करने का यह सर्वाधिक उपयुक्त समय होता है जब ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है। इस रात भगवान शिव का विवाह हुआ था। भारतीय जीवन में ऐसे लोक पर्व वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में भले ही धूमिल हो रहे हों परंतु इनका वैज्ञानिक पक्ष आस्था के आगे उजागर हो नहीं पाता। भारतीय आस्था में चाहे सूर्य ग्रहण हो या कुंभ का पर्वए दोनों ही समान महत्व रखते हैं। शिव रात्रि एक ऐसा महत्वपूर्ण पर्व है जो देश के हर कोने में मनाया जाता है। यह पर्व भगवान शिव एवं माता पार्वती के मिलन का महापर्व कहलाता है। इस व्रत से साधकों को इच्छित फल,धन, वैभव, सौभाग्य, सुख समृद्धि, आरोग्य, संतान आदि की प्राप्ति होती है। मान्यता है कि सृष्टि के आरंभ में इसी दिन मध्य रात्रि भगवान शंकर का ब्रह्मा से रुद्र के रुप में अवतरण हुआ था। प्रलय की वेला में इसी दिन प्रदोश के समय शिव तांडव करते हुए ब्रहाण्ड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसीलिए, इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा जाता है। काल के काल और देवों के देव महादेव के इस व्रत का विशेष महत्व है। एक मतानुसार इस दिन को शिव विवाह के रुप में भी मनाया जाता है। ईशान संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को अद्र्धरात्रि के समय करोड़ों सूर्य के तेज के समान ज्योर्तिलिंग का प्रादुर्भाव हुआ था। स्कंद पुराण के अनुसार-चाहे सागर सूख जाए, हिमालय टूट जाए, पर्वत विचलित हो जाएं परंतु शिव-व्रत कभी निष्फल नहीं जाता। भगवान राम भी यह व्रत रख चुके हैं।
व्रत की परंपरा
प्रात: काल स्नान से निवृत होकर एक वेदी पर, कलश की स्थापना कर गौरी शंकर की मूर्ति या चित्र रखें । कलश को जल से भर कर रोली, मौली, अक्षत, पान सुपारी, लौंग, इलायची, चंदन, दूध, दही, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, विल्व पत्र, कनेर आदि अर्पित करें और शिव की आरती पढ़ें । रात्रि जागरण में शिव की चार आरती का विधान आवश्यक माना गया है। इस अवसर पर शिव पुराण का पाठ भी कल्याणकारी कहा जाता है।
विशेष: चेतावनी
बेल पत्र भगवान शिव को अत्यंत प्रिय हैं। बेल पत्र के तीनों पत्ते पूरे हों एटूटे न हों । इसका चिकना भाग शिवलिंग से स्पर्श करना चाहिए। नील कमल भगवान शिव का प्रिय पुष्प माना गया है। अन्य फूलों मे कनेर, आक, धतूरा, अपराजिता, चमेली, नाग केसर, गूलर आदि के फूल चढ़ाए जा सकते है। जो पुष्प वर्जित हैं वे हैं-कदंब, केएड़ा, केतकी। फूल ताजे हों बासी नहीं।
इस दिन काले वस्त्र न पहनें। इसमें तिल का तेल प्रयोग न करें। पूजा में अक्षत ही चढाएं। टूटे चावल न चढ़ाएं।
भगवान शिव को सफेद फूल बहुत पसंद होता हैं, लेकिन केतकी का फूल सफेद होने के बावजूद भोलेनाथ की पूजा में नहीं चढ़ाना चाहिए। भगवान शिव की पूजा करते समय शंख से जल अर्पति नहीं करना चाहिए। भगवान शिव की पूजा में तुलसी का प्रयोग वर्जित माना गया है। शिव की पूजा में तिल नहीं चढ़ाया जाता है। तिल भगवान विष्णु के मैल से उत्पन्न हुआ माना जाता है, इसलिए भगवान विष्णु को तिल अर्पित किया जाता है लेकिन शिव जी को नहीं चढ़ता है। भगवान शिव की पूजा में भूलकर भी टूटे हुए चावल नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। शिवरात्रि के दिन शिवलिंग पर नारियल का पानी नहीं चढ़ाना चाहिए। शिव प्रतिमा पर नारियल चढ़ा सकते हैं, लेकिन नारियल का पानी नहीं। हल्दी और कुमकुम उत्पत्ति के प्रतीक हैं, इसलिए पूजन में इनका प्रयोग नहीं करना चाहिए। बिल्व पत्र के तीनों पत्ते पूरे होने चाहिए, खंडित पत्र कभी न चढ़ाएं। चावल सफेद रंग के साबुत होने चाहिए टूटे हुए चावलों का पूजा में निषेध है। फूल बासी एवं मुरझाए हुए न हों।
विभिन्न सामग्री से बने शिवलिंग का अलग महत्व
फूलों से बने शिवलिंग पूजन से भू-संपत्ति प्राप्त होती है। अनाज से निर्मित शिवलिंग स्वास्थ्य एवं संतान प्रदायक है। गुण व अन्न मिश्रित शिवलिंग पूजन से कृषि संबंधित समस्याएं दूर रहती हैं। चांदी से निर्मित शिवलिंग धन-धान्य बढ़ाता है। स्फटिक के वाले से अभीष्ट फल प्राप्ति होती है। पारद शिवलिंग अत्यंत महत्वपूर्ण है जो सर्व कामप्रद, मोक्षप्रद, शिवस्वरुप बनाने वाला, समस्त पापों का नाश करने वाला माना गया है।
शिवरात्रि पर करें कालसर्प या राहू योग का निवारण
चांदीे के नाग-नागिन का जोड़ा, दुध या गंगा जल, हलवा, सरसों का तेल, काला सफेद कंबल, शिवलिंग पर अर्पित करें। महामृत्युंज्य मंत्र की कम से कम एक माला 108 मंत्र अवश्य पढ़ें या किसी सुयोग्य कर्मकांडी से इस दोष का विधिवत निवारण करवाएं।
मुख्य मंत्र
-ओम् नम: शिवाय
-ओम् नमो वासुदेवाय नम
-ओम् राहुवे नम:
-महामृत्युंज्य मंत्र-ओम् त्रयंम्बकं यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्धनं!
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्!!
-शिवरात्रि पर अन्य मंत्र आप विभिन्न समस्याओं के लिए कर सकते हैं
आय वृद्धि रू शं हृीं शं !!
विवाह: ओम् ऐं हृी शिव गौरी मव हृीं ऐं ओम् !
शत्रु: ओम् मं शिव स्वरुपाय फट् !
रोग: ओम् हैं सदा शिवाय रोग मुक्ताय हैं फट् !
साढ़े साती: हृीं ओम् नम: शिवाय हृीं !
मुकदमा: ओम् क्रीं नम: शिवाय क्रीं !
परीक्षा: ओम् ऐं गे ऐं ओम् !
बिगड़ी संतान: ओम् गं ऐं ओम् नम: शिवाय ओम् !
विदेश यात्रा: ओम् अनंग वल्लभाये विदेश गमनाय कार्यसिद्धयर्थे नम:!
सुख सम्पदा: ओम् हृौं शिवाय शिवपराय फट्!
शत्रु विजय: ओम् जूं स: पालय पालय स: जूं ओम्!
रोजगार प्राप्ति : ओम् शं हृीं शं हृीं शं हृीं शं हृीं ओम!
प्रेम प्राप्ति: ओम् हृीं ग्लौं अमुकं सम्मोहय सम्मोहय फट्!
महाशिवरात्रि के दिन अपनी राशि के अनुसार आराधना

मेष : गुलाल से शिवजी की पूजा करें साथ में शिवरात्रि के दिन ऊँ ममलेश्वाराय नम: मंत्र का जाप करें।
वृषभ : दूध से शिवजी का अभिषेक करें और नागेश्वराय नम: मंत्र का जाप करें।
मिथुन : गन्ने के रस से शिवजी का अभिषेक करें और भुतेश्वराय नम: मंत्र का जाप करें।
कर्क : पंचामृत से शिवजी का अभिषेक करें और महादेव के द्वादश नाम का स्मरण करें।
सिंह : शहद से शिवजी का अभिषेक करें और नम: शिवाय मंत्र का जाप करें।
कन्या : शुद्ध जल से शिवजी का अभिषेक करें और शिव चालीसा का पाठ करें।
तुला : दही से शिवजी का अभिषेक करें और शांति से शिवाष्टक का पाठ करें।
वृश्चिक : दूध और घी से शिवजी का अभिषेक करें और अन्गारेश्वराय नम: मंत्र का जाप करें।
धनु : दूध से शिवजी का अभिषेक करें और समेश्वरायनम: मंत्र का जाप करें।
मकर : अनार से शिवजी का अभिषेक करें और शिव सहस्त्रनाम का उच्चारण करें।
कुम्भ : दूध, दही, शक्कर, घी, शहद सभी से अलग अलग शिवजी का अभिषेक करें और शिवाय नम: मंत्र का जाप करें।
मीन : ऋतुफल (जो मौसम का खास फल हों) से शिवजी का अभिषेक करें और भामेश्वराय नम: मंत्र का जाप करें।

मदन गुप्ता ‘सपाटू ‘
458, सैक्टर -10, पंचकूला- हरियाणा-134109

मो : 9815619620

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