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हाय मैं शर्म से गुलाबी हुई (लघु संस्मरण)

यह बात दो साल पहले अर्थात कोरोना से पहले की है ।मेरे 17 वर्षीय बेटे का एक एंट्रेंस एग्जाम था और तब उसे छोड़ने मैं भी उसके साथ गई थी। हमने वहां सेंटर पर पहुंचकर सबसे पहले गेट के बाहर रोल नंबर का नोटिस बोर्ड पढ़ा और उसके हिसाब से हम ने पता लगाया कि बेटे को कौन सी फ्लोर पर कौन से रूम नंबर में जाना है।पेपर शुरू होने से 15मिनट पहले ही गेट खोल दिया गया और सारे बच्चे स्कूल, जो कि परीक्षा केंद्र था,के अंदर घुसने लगे।
बेटे के साथ-साथ मैं भी अंदर चली गई।मुझे नहीं मालूम था कि बच्चे के साथ पेरेंट्स का जाना अलाउड नहीं है।मुझे यही था कि मैं बेटे को क्लासरूम तक छोड़कर आऊं।दूसरी बात, ना ही बीच में मुझे किसी ने रोका,जबकि हम क्लास रूम के बाहर तक पहुंचे उस से पहले बीच में हमें दो से तीन गार्ड रास्ते में मिले ,परंतु मुझे किसी ने नहीं रोका तो मुझे यही लगा कि शायद पेरेंट्स को बच्चों को अंदर छोड़ने जाना अलाउड है ताकि सब अपने अपने बच्चों को रूम में बैठा कर वापस आ जाएं।
परंतु ,जैसे ही हम एग्जामिनेशन रूम के बाहर तक पहुंचे तो वहां एक सर रूम के बाहर दरवाजे पर ही खड़े थे।उन्होंने पहले बेटे से रोल नंबर मांगा, बेटे ने अपना रोल नंबर दिखाया और अंदर चला गया।फिर उन्होंने मुझसे कहा कि आप अपना रोल नंबर दिखाइए, मैं हैरान हो गई ।मैंने कहा :सर मैं तो अपने बेटे को छोड़ने आई थी जो अभी अभी अंदर गया है वह मेरा बेटा ही तो था।सर अचंभित होकर मेरी तरफ देखने लगे और बोले”आप उस बच्चे की मम्मी हैं? ऐसा कैसे हो सकता है ,मुझे तो यही लगा कि आप भी कैंडिडेट अर्थात स्टूडेंट हैं और पेपर देने आई हैं,और शायद यही गलतफहमी नीचे से यहां तक बीच में आने वाले सभी गार्ड्स को भी हुई होगी ,इसीलिए उन्होंने आपको नहीं रोका ,वरना पेरेंट्स का तो गेट के अंदर आना ही अलाउड नहीं था ।
उनकी यह बात सुनकर जहां एक तरफ मैं हैरान थी,वहीं दूसरी तरफ मुझे अंदर ही अंदर बहुत ज्यादा अच्छा महसूस भी हो रही था क्योंकि उनका वह कहना मेरे लिए किसी कंपलीमेंट से कम नहीं थाउनकी इस बात से कुछ देर के लिए ही सही ,पर, मेरे चेहरे का रंग जरूर बदला था। मैं शर्म से लाल नहीं तो गुलाबी तो जरूर हो गई थी
आज भी जब हम उस वाकया को याद करते हैं तो मुझे बहुत अच्छा फील होता है।
पिंकी सिंघल, दिल्ली
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